हेमंत तिवारी
एग्जिट पोल के नतीजे हमारे सामने हैं और अगर इन्हे सच का एक संकेत माना जाए तो सपा बसपा की नींद उड़ाने के लिए ये काफी हैं। देश के कई टीवी चैनलों ने अपने अनुमानों में यूपी में भाजपा को 50 से ज्यादा सीटें दी हैं। अगर ऐसे ही नतीजे भी आये तो यूपी की राजनीती में सामाजिक समीकरणों का एक भ्रम टूट जाएगा।
लोकसभा चुनावो के पहले जब सपा और बसपा के गठबंधन की घोषणा हुई थी तो अचानक ही लगाने लगा था की करीब 3 दशको के बाद एक बार फिर वोटो का अपराजेय गणित बन गया है और विश्लेषकों ने भी इस गठबंधन के आधार पर सीटों की भविष्यवाणियां शुरू कर दी। यह अनायास नहीं था, कोई भी विश्लेषण इतिहास के अनुभवों के आधार पर ही होता है और इतिहास में कांसी राम और मुलायम सिंह यादव के एक साथ आने के बाद के नतीजे हमारे सामने थे। लेकिन शायद एक बड़ा फर्क भी था।
इस बार भाजपा बदली हुई थी और मोदी और अमित शाह की आक्रामक जोड़ी गठबंधन के सामने चुनौती पेश कर रही थी और राष्ट्रवाद के नारे को पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक का एक ठोस आधार भी मिल चुका था। हालांकि भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं थी , पूर्वांचल में बड़े वोट बैंक का दावा करने वाले ओम प्रकाश राजभर की एनडीए से बगावत भी फ़िक्र पैदा करने वाली बात थी।
समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के लिए भी यह एक बड़ा निर्णय रहा. बीते करीब तीन दशको से एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकने वाली इन पार्टियों ने अगर एक साथ खड़े होने का मन बनाया था तो उसके पीछे कहीं न कही अस्तित्व बचने का संघर्ष भी था और उत्तर प्रदेश में खोई हुई जमीन पाने की जद्दोजहद भी थी।
पूरे चुनावी अभियान में गठबंधन के नेताओं की आपसी केमेस्ट्री भी शानदार दिखाई दे रही थी. मंच पर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव का मायावती के पैर छूने वाली तस्वीर ने खूब सुर्खियां बटोरी। लेकिन एक सवाल राजनीतिक पंडितो के बीच लगातार बहस का विषय बना रहा – क्या सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को ट्रांसफर हो पाएंगे ?
एक्जिट पोल के अनुमान अगर सही निकलते हैं तो इस सवाल का जवाब साफ़ मिल जाएगा – “नहीं” . इस जवाब के साथ ही एक बात और भी तय होगी कि जातीय वोटो की गोलबंदी के सहारे राजनीती करने के दिन भी चले गए। दलित वोटो पर अपना अधिकार रखने वाली मायावती और यादव -मुस्लिम वोटो का ठोस समीकरण बनाने वाले अखिलेश यादव की उनके वोटरों को मनचाहे रूप से घूमाने का दावा भी ख़त्म हो जाएगा। लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी साबित हो जाएगा कि चुनावो के बीच इन क्षेत्रीय पार्टियों के स्थानीय नेताओं का रुख भी नतीजों पर प्रभाव डाल रहा था।
उदाहारण के रूप में गाजीपुर की सीट देखें तो गठबंधन के फार्मूले में यह सीट बसपा को गई थी। बसपा ने अफ़ज़ल अंसारी के रूप में एक मजबूत उम्मीदवार भी दिया। जातीय वोटों के समीकरणों के हिसाब से ये सीट गठबंधन के पक्ष में जानी चाहिए , लेकिन बसपा के खाते में जाने के बाद सपा का मजबूत गढ़ माने जाने वाले इस इलाके के कई कद्द्वार समाजवादी नेता करीब करीब शांत हो कर बैठ गए। ऐसा ही कुछ जौनपुर की सीट पर भी होता दिखाई दिया। यह इलाका भी समाजवादी पार्टी के मजबूत किले में शुमार होता है , मगर यह सीट भी बसपा के खाते में गई थी , एक रिटायर्ड अधिकारी को अचानक इस सीट पर बसपा ने उतार दिया , चर्चा यह भी रही की इस टिकट के लिए पैसे का लेनदेन भी हुआ। इन इलाकों के स्थानीय समाजवादी नेताओं ने भी यहाँ बहुत रूचि नहीं ली।
दरअसल यह पूरा चुनाव ही मोदी के नाम पर लड़ा गया। कई सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों से बेहद नाराज होने के बावजूद मोदी समर्थक वोटरों ने उनके नाम के आगे का बटन दबाया। मोदी समर्थक वोटरों की संख्या यदि अधिक निकलती है तो इसका साफ़ मतलब होगा कि पिछड़ी और दलित जातियों के बीच भी मोदी की लोकप्रियता बनी हुयी है , और मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के साथ राष्ट्रवाद के तड़के ने भाजपा के लिए एक अच्छा व्यंजन तैयार किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )