अशोक माथुर
दुनिया के सबसे महंगे लोकतंत्र का सबसे महंगा चुनाव सम्पन्न हो गया है। केवल परिणाम आने ही बाकी है। एक बात साफ हो गई कि अगर किसी को जन प्रतिनिधि बनना है तो उसके लिए जरूरी है कि वो करोड़पति हो। उसको विकास के पैमाने पर कसा जा सकता है।
यह भी एक विकास है कि अब हमारे जनप्रतिनिधि गरीब नहीं होते, करोड़पति होते है। यह भी आंकड़ा वे जो शपथ-पत्र देते हैं उसी से निकलता है। इन जन प्रतिनिधियों को जो वोट डालते है वे बेशक अभी भी दीन-हीन व दारूण हालतों में जी रहे है। गरीबी हटाओ, अंत्योदय, बीस सूत्री इत्यादि-इत्यादि बहुत सी बातों के बावजूद आम आवाम कर्जे के शिकंजे में बुरी तरह से फंसा है। इसको विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था कैसे कहा जा सकता है।
एक बार एक आदमी कोट, पेन्ट, टाई व हैट लगाकर इंग्लैण्ड से भारत आया था और उसने देखा कि भारत महान में अधिकांश लोग आंशिक वस्त्र पहने है और औरतें तक एक ही वस्त्र से अपना पूरा शरीर ढकती थी। जबकि भारत में कपास पैदा होता था और आलीशान व महंगे वस्त्रों का उत्पादन व व्यापार भी भारत के नाम पर इंग्लैण्ड करता था।
इस अंग्रेजी पढ़े हुए बेरिस्टर ने दीन-हीन भारत के हालात देखकर अपने महंगे वस्त्र त्याग दिए और जब तक जिया एक ही सूती वस्त्र से वो अपना शरीर ढकते थे। बड़ी से बड़ी सभा सोसायटी में भी वे अपने ही हाल में जाते थे और दुनिया के सामने यह सच उजागर हो गया कि भारत अद्भुत गरीबी के दौर में साम्राज्यवाद के शोषण का शिकार है। यह बन्दा लड़ता रहा और एक अपने ही आदमी ने गोली चलाकर उनकी हत्या कर दी।
ये अद्भुत बात थी कि ये आदमी उस जमाने का करोड़पति आदमी था। लेकिन जब वो लोक सेवक बना तो उसने सबकुछ त्याग दिया। ये कार्य किसी के कहने या दबाव से नहीं किया था, उसने इतिहास मंे झांक कर देखा था कि ईसा मसीह, मोहम्मद साहब, बुद्ध व महावीर जैसे लोगों ने राज-पाट, धन-दौलत छोड़कर के लोक जागृति का कार्य किया था। यह बात लिखने की प्रेरणा मुझे गुफा में ध्यान मुद्रा में बैठे हुए प्रधानमत्री को देखकर मिली।
जनता जिन्हें वोट देती है वे पुराने राजा-महाराजाओं की प्रीविपर्स (राजाओं को जन कोष से मिलने वाली राशि) से कहीं ज्यादा राज सुख प्राप्त करते है। छोटी से लेकर बड़ी दिल्ली की पंचायत तक जो राजतंत्र के नजदीक है या उसके अन्दर है उसकी पांचों अंगुलियां घी में है। अच्छी बात है।
अगर हमारा जनप्रतिनिधि सम्पन्न है तो वह अब और नहीं कमाएगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है, ऐसे कितने जनप्रतिनिधि है जो त्याग की मूर्ति बनना चाहते है। अब बलिदान देने को हम नहीं कह रहे, न ही हम राष्ट्रीयता की बात करते हुए उनकी राष्ट्रीयता की परीक्षा लेने के लिए सीमा पर जाने के लिए कहेंगे। चुने हुए प्रतिनिधियों को ना ही कश्मीर के आतंकवादियों से लड़ना है और ना ही उग्र वामपंथी नक्सलवाद से।
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ये चुने हुए प्रतिनिधि आलीशान भवनों में कागज पर योजना बनाएंगे, सभाओं में भाषण देंगे, मुसीबतों और राष्ट्र भक्ति दिखाने के लिए गरीब व किसान का बेटा ही काफी है। एक तरफ एक किसान का बेटा गोली चलाएगा तो दूसरी तरफ किसी किसान या मजदूर का बेटा गोली खाकर मरेगा। जो मजदूरी पर गोली चलाएगा अगर वो मर गया तो उसकी राष्ट्र भक्ति प्रमाणित है, तिरंगे में लपेटा हुआ उनका शव शहीद कहलाएगा और जिसके दूसरी तरफ गोली लगेगी जो सरकार से नाराज है उसको लोग मात्र आंतकवादी, नक्सलवादी कहकर पेट्रोल या डीजल छिड़क कर उनकी अंतिम क्रिया कर देंगे।
ये विचित्र पहेली यहां पैदा हो जाती है कि एक ही धरती पर पैदा हुए लोग अलग-अलग कैसे हो जाते है। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि समस्याग्रस्त इलाकों में जाकर बगावत करने वाले लोगों का हृदय परिवर्तन नहीं करेंगे। वे जाकर उन नौजवानों को ना समझायेंगे ना ही पुचकारेंगे, बस राजधानी से वे मीडिया में अपना भाषण देंगे। चुनाव का रिजल्ट कल सामने आ जाएगा और हमारे लिए अच्छे लोगों की एक अच्छी सरकार बन जाएगी। पक्ष व विपक्ष के रूप में खेमें भी बन जाएंगे। खूब बहस होगी और अब सबकुछ वैसा ही चलता रहेगा।
चुनाव अभियान के दौरान इन चुनाव लड़ने वाले लोगों ने हमेशा दूसरों के लिए बड़ी-बड़ी बातें की। लेकिन इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसने यह कहा हो कि वो खुद क्या करेगा? हम यहां कहना चाहते है कि जो लोक सेवक है वे कानून बने या ना बने वे स्वैच्छा से अपने वेतन, भत्ते और लाभों को त्याग कर दें। वे विशेषाधिकारों को छोड़ने की घोषणा करें। उनको जो वीआईपी सुविधा व दर्जा दिया जाता है वे यह सब त्याग दें। उन्होंने अपने नामांकन में यह दर्ज किया है कि उनके पास अपार सम्पति है, सामान्य आदमी से ज्यादा धन है। वे नगद नारायण का जुगाड़ कर सकते है।
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इससे यह तो जाहिर ही है कि उनके सामने दाल-रोटी का संकट लोक सेवा करते हुए नहीं आएगा। आदमी को जीने के लिए चाहिए ही क्या, दो जूण की रोटी व शरीर को ढकने के लिए दो जोड़ी कपड़ा। अगर इससे ज्यादा वो धन जुटा रहे हैं तो वे अपनी सेवाओं का प्रतिफल गरीब लोगों के हाड़, मांस व खून से निकाल रहे है, यह उचित नहीं है। यहां हम जब सुविधाऐं छोड़ने की बात करते हैं तो हम किसी को महात्मा गांधी बनने के लिए नहीं कहते।
कम्युनिस्टों ने भूतकाल में ऐसे उदाहरण पेश किए थे लेकिन उनकी ताकत कम हो गई। क्या इसलिए हो गई कि उनके पास धन वाले उम्मीदवार नहीं थे। ऐसी बात नहीं है। जो सर्वहारा है वो तो वहां भी नेता नहीं बन पाया। हमारा सुझाव हो सकता है किसी सरपंच, एमएलए, सांसद, मंत्री, निगमों के अध्यक्ष इत्यादि-इत्यादि को पसन्द ना आए, वे दिमागी खुराफात मान सकते है लेकिन समाजशास्त्र का नियम है कि ये दुनिया सब देख रही है।
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नंग-धड़ंग लोगों ने जब यह सत्य समझ लिया था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद उनका खून पी रहा है तो उन्होंने उसका सूरज अस्त कर दिया। जन प्रतिनिधियों का वैभव क्या मतदाता नहीं देख रहा है। अगर देख रहा है तो वंचित वर्गों के दिमाग पर उसका जरूर पड़ता ही होगा। गुरू गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि राज करेगा खालसा, आकी (पापी) बचे न कोय। अभी वक्त आ गया है कि जब हम नयी संसद का स्वागत करेंगे और हमारे जन प्रतिनिधि से कहेंगे कि वो त्याग व तपस्या का उदाहरण पेश करे। जो अरबों रूपया बचेगा उससे हम शिक्षा, स्वास्थ्य व पानी जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेंगे।
( लेखक दैनिक लोकमत के प्रधान संपादक हैं )