Wednesday - 30 October 2024 - 6:05 PM

चुनाव में सिर चढ़ कर बोलता है नारों का जादू…

कृष्णमोहन झा

2014 में संपन्न गत लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी “अच्छे दिन आने वाले है” और “अबकी बार मोदी सरकार” इन दो नारों के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की थी।

यह बात अलग है कि अच्छे दिन वाले नारे को लेकर अनेक विरोधी दलों ने गत पांच वर्ष के दौरान निरंतर कटाक्ष किए है ,परन्तु जनता को कई मोर्चों पर अच्छे दिन का अहसास कराने में मोदी सरकार सफल भी रही है ,इसलिए उसे मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी जनता का पूरा आशीर्वाद मिलने का मोदी सरकार को भरोसा है। यही कारण है कि भाजपा ने इस बार “फिर एक बार ,मोदी सरकार “का नारा दिया है और मतदाताओं के बीच यह नारा एक बार फिर सफल होता दिख भी रहा है।

दूसरी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी पिछले कुछ माहों से निरंतर “चौकीदार चोर है” का नारा देकर मोदी सरकार के प्रति जनता के आकर्षण को तोड़ने की कोशिश में लगे हुए है। हालांकि इस नारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद वह क्षमा याचना भी कर चुके है, लेकिन फिर भी वह इस नारे को छोड़ने को तैयार नहीं है।  उनका कहना है कि उन्होंने इस नारे को लेकर मोदी सरकार से माफ़ी नहीं मांगी है ,परन्तु राहुल गांधी को इस हकीकत का अहसास नहीं है कि इस नारे में छिपी नकारात्मकता जनता पर प्रभाव छोड़ने में वह  सफलता अर्जित नहीं कर सकती है, जिसकी उम्मीद वह कर रहे है।

दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी राजनीतिक चतुराई दिखाते हुए इस नकारात्मक नारे के जवाब में “मै भी चौकीदार हूँ”  का नारा देकर राहुल के हमले को जनता की तरफ मोड़ दिया है। प्रधानमंत्री अपने भाषणों में कह रहे है कि रहे है कि मै देश का चोकीदार हूँ और जनता के पैसे पर कांग्रेस का पंजा नहीं पड़ने दूंगा। मोदी कांग्रेस के नारे से बिलकुल भी विचलित नहीं है। अब देखना यह है कि 23 मई को जनता इस नारे पर क्या फैसला देती है।

भारतीय राजनीती में नारों का इतिहास बहुत पुराना है। चुनाव के समय राजनीतिक दलों द्वारा नए-नए नारे गड़े जाते है। सकारात्मक भाव रखने वाले नारे जनमानस पर गहरा प्रभाव छोड़ने में सफल हो जाते है ,परन्तु कभी कभी कुछ दलों ने ऐसे नारों से भी परहेज नहीं किया जिनके पीछे नफ़रत, द्वेष और वैमनस्य की भावना काम कर रही होती है।

ऐसे नारों ने दलों को कुछ हद तक तो फायदा पहुंचाया है, लेकिन कालांतर में ऐसे नारों को जनता द्वारा ठुकरा दिया गया है और दलों को इस नारे से खुद ही तौबा करनी पड़ी। उदाहरण के लिए बहुजन समाज पार्टी की बागडौर जब कांशीराम के हाथों में थी ,तब बसपा ने एक नारा दिया था “तिलक तराजू और तलवार इनको…….. इस नारे से  समाज में वैमनष्य का खतरा था और आगे चलकर जब कांशीराम के बाद बसपा सुप्रीमों बनी मायावती को लगा कि समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर ही सत्ता हासिल की जा सकती है तो उन्होंने नया नारा दे दिया “हाथी नहीं गणेश है, ब्रम्हा विष्णु महेश है। इस नारे का मायावती को चुनावी लाभ मिला और वह प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने में कामयाब रही थी।

इसी तरह जब उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार में अपराधी तत्वों का बोलबाला तब बसपा ने यह नारा दिया था “चढ़ गुंडन की छाती ,पर मोहर लगाओ हाथी पर” । उसके बाद एक और नारे “चलेगा हांथी ,उड़ेगी धूल न रहेगा हाथ न रहेगा फूल”। ऐसे नारों  ने बसपा को सत्ता की दहलीज पर पंहुचा दिया था। इसी तरह मध्यप्रदेश में 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने” घर घर से आई आवाज फिर भाजपा फिर शिवराज “नारा दिया था। इस नारे ने भाजपा को प्रचंड बहुमत से सत्ता में पहुंचाया था जिसका सिलसिला 2013 में जारी रहा।

1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने “सबको देखा बारी- बारी अबकी बारी अटल बिहारी” का नारा देकर मतदाताओं में भाजपा के प्रति झुकाव को निर्मित करने में सफलता प्राप्त की थी। इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी ने जब अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के पक्ष में माहौल निर्मित करने हेतु रामरथ यात्रा निकाली थी तब उसके बाद हुए चुनावों में भाजपा ने “सौगंध राम की खाते है, मंदिर वही बनाएंगे”,  “राम लला हम आएंगे ,मंदिर वही बनाएंगे” तथा “बच्चा बच्चा राम का जन्म भूमि के काम का”जैसे नारे दिए थे।

इन नारों ने भाजपा को दो सांसदों की पार्टी से उठाकर 89 सांसद वाले एक बड़े दल के रूप में स्थापित कर दिया था। इन नारों से भाजपा ने उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की थी। इसके साथ ही जब तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व बसपा अध्यक्ष कांशीराम ने उत्तरप्रदेश विधानसभा के लिए चुनावी गठबंधन कर संयुक्त लड़ाई लड़ी तो राज्य में एक नया नारा गूंजने लगा “मिले मुलायम कांशीराम ,हवा हो गए जय श्रीराम”। इससे दोनों दल भाजपा को मात देने में कामयाब हो गए।

1989 के लोकसभा चुनाव में तात्कालीन जनता दल ने जो  सफलता अर्जित की थी ,उसमे पूर्व रक्षा मंत्री विश्नाथ प्रताप सिंह ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। वीपी सिंह को तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रक्षा मंत्री के पद से हटा दिया था ,तब यह धारणा बन गई थी बोफोर्स तोप सौदे में भ्रष्टाचार को उठाने के कारण ही उन्हें मंत्रिपद से हटाया गया है। इसके बाद वीपी सिंह ने जनता की सहानुभूति अर्जित करने में सफलता पाई थी। बाद में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद एक नारा देशभर में चर्चा में आया था।  “राजा नहीं फ़क़ीर है ,देश की तक़दीर है”। इस नारे ने वीपी सिंह को देशभर में लोकप्रिय कर दिया था ,लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट लागु करने के बाद उनके विरुद्ध देशभर के युवाओं में व्यापक असंतोष भी पनपा।

इसके बाद आडवाणी की रामरथ यात्रा को रोकने के बाद भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर उनकी ढाई साल की सरकार को गिरा दिया। इसके बाद वीपी सिंह धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के परिदृश्य से ओझल हो गए।

अगर हम थोड़ा और पीछे लौट कर देखे तो 1971 के लोकसभा चुनाव में तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा दिया गया “गरीबी हटाओं ” का नारा भी बहुत चर्चित रहा। उस चुनाव में विपक्षी दलों ने “इंदिरा हटाओं ” का नारा दिया दिया था जिसके जवाब ने इंदिरा गांधी ने यह नारा दिया था। इंदिरा तब हर चुनावी रैली में कहती थी कि मै कहती हूँ कि गरीबी हटाओं ,लेकिन वे कहते है कि इंदिरा हटाओं अर्थात जो गरीबी हटाने की बात करे उसे सत्ता से हटाओं।

इंदिरा के इस तर्क ने जनता को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भारी बहुमत से उस चुनाव में जीत हासिल की। इसके बाद आपातकाल लागु करने के बाद जब सारा विपक्ष इंदिरा के विरुद्ध एकजुट हो गया और सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उनके विरुद्ध सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन प्रारंभ किया गया, उस दौरान एक नारा खासा चर्चित हुआ था “सिहांसन खाली करो जनता आती है”।

विपक्ष की एकता से बनी जनता पार्टी ने इस नारे के बल पर इंदिरा गांधी को 1977 के चुनाव में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था । इंदिरा गांधी स्वयं भी रायबरेली में राजनारायण के हाथों पराजित हो गई थी। हारने के बाद जब उन्हें संसद में प्रवेश के लिए किसी सुरक्षित सीट की तलाश थी ,तब कर्नाटक में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने उन्हें राज्य की चिकमंगलूर सीट से चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया।

इंदिरा के लिए उस क्षेत्र के कांग्रेस सांसद डीबी चंद्रगौड़ा ने अपनी सीट खाली कर दी थी। इंदिरा जी ने चिकमंगलूर से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा और जीतकर लोकसभा पहुंची थी। इस उपचुनाव में कांग्रेस ने इंदिराजी के लिए एक नारा दिया था जो उस समय केवल चिकमंगलूर ही नहीं बल्कि सारे देश में चर्चित हुआ था। वह नारा था “एक शेरनी सौ लंगूर चिकमंगलूर, चिकमंगलूर” इस नारे ने मतदाताओं का खूब मनोरंजन भी किया था।

कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी चुनाव में मतदाता राजनीतिक पार्टियों के खर्चीले चुनाव प्रचार से उतने अधिक प्रभावी नहीं होते है जितने की एक प्रभावी नारे से।  ये नारे उनके मानस पर गहरी छाप जाते है। दरअसल ये नारे थोड़े शब्दों में अपनी बात कहने का शसक्त माध्यम होते है। नारों से कटाक्ष भी किया जाता है और गंभीर बात भी कही जाती रही है।

अतः यह कहना  होगा कि भारतीय चुनावी इतिहास में किसी भी दल की जय पराजय में नारों की अहम् भूमिका रही है। इतना तो कि यदि नारों में सकारात्मक सन्देश छुपा होता है तो वे दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ने  होते है। पिछले चुनाव में अच्छे दिन वाले नारे ने खासा प्रभाव छोड़ा था ,अब देखना यह है कि मौजूदा चुनाव में कोई ऐसा नारा उभरकर सामने आएगा जो लम्बे समय तक मतदाताओं के मानस में जीवित रहेगा।

(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)

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