अभिषेक श्रीवास्तव
यह टुकड़ा लिखते समय मैं दो पत्रकार साथियों के संग रोहनिया की तरफ जा रहा हूं। हमारे सारथी जब शहर से निकले तो उन्हें रोहनिया का रास्ता पता नहीं था। उन्होंने फोन लगाया और बहुत धीमे स्वर में किसी से पता पूछा। उसने बताया दाएं मुड़ो, भाई ने दाएं काट लिया। तब तक हमने उन्हें टोकते हुए बाएं चलने को कहा।
पूछने पर पता चला कि भाई बिहार का है, लोकल नहीं। थोड़ी देर बाद सारथी भाई के पास किसी का फोन आया। जवाब से पता चला कि उनसे पता ठिकाना पूछा गया था। अनावश्यक रूप से भाई की आवाज़ में सेंसेक्स जैसा उछाल आ गया और उसने कहा, “उहे मोदी के प्रचार में लगल हई, आवे में संझा हो जाई।”
लिखते हुए मैं यही सोच रहा हूं कि भाई ने क्या सोच कर कहा कि मोदी का प्रचार कर रहा है। क्या रोहनिया जाने वाला हर आदमी भाजपा का प्रचारक है? या फिर मोदी का प्रचार कह के आप सामने वाले को टाल सकते हैं आसानी से? या फिर प्रभाव जमाने का यह नया तरीका है? सवाल ये भी है कि क्या हर कैंडिडेट वाकई रोहनिया पर मेहनत कर रहा है? क्या भाजपा के डेढ़ लाख पटेल वोट खतरे में हैं? आखिर अजय राय ने सेवापुरी में अपना दफ्तर क्यों खोला? अमरेश मिश्रा रोहनिया थाना के बगल में क्यों कार्यालय खोले बैठे हैं? कुछ तो बात है।
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बात समझ में आई मोदी जी के दत्तक गांव ककरहियां की एक छोटी सी अड़ी पर, जहां कुछ अधेड़ और बुज़ुर्ग बैठे हुए थे। बातचीत के बीच अचानक एक मोटरसाइकिल वाला वहां आकर रुका। उसने खड़ी में पूछा – यहां कितने अनुसूचित जाति के लोग हैं? जनता ने एक स्वर में कहा कोई नहीं, यहां अनुसूचित जनजाति के कुछ लोग ज़रूर हैं। किसी ने बताया छह घर। फिर उस व्यक्ति ने कहा कि दस लोगों के नाम और नंबर लिख कर एक कागज पर दे दो, सरकार कुछ लाभ देने वाली है। लाभ का नाम सुनते ही अगले सवाल को अनसुना कर के बहस इस बात पर शुरू हो गई कि छह घर में कितने वोटर होंगे।
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एक आवाज़ आई – पचास! पचास पर सहमति बनने के बाद एक अधेड़ बोला, “ई बतावा कब ले मिली लाभ?” दूसरे ने समझाया कि चुनाव से पहले तो मिल ही जाएगा। मोटरसाइकिल वाला ईमानदार था, बोला – सीधे अठारह के रात में लाभ भेजाई की खा पीके कुल सबेरे ले टाइट रहें। और इतना कहते ही वह गंदी सी हंसी हंस दिया। जनता अब भी मौज के मूड में थी और बहस किए जा रही थी। वहां बैठे गोंड को बूढ़े एजेंट ने खोदा – तई चला अपने घरे, सबकर मोबाइल नंबर दे दा। वह जाने में हिचकिचा रहा था लेकिन दबाव पड़ा तो वह पिघल गया। पीछे बैठकर साथ निकल गया।
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वापसी में उसके घर होते हुए हम आए। पता चला कि जो शख्स अड़ी पर सबके सामने हमें मोदी को वोट देने की बात कह रहा था, वो घर में अकेले हमसे गठबंधन को वोट देने की बात कह रहा था। दरअसल, अड़ी पर बैठते ही एक ने मुझे देखकर टिप्पणी की थी – हम जानत हई की तू भाजपा का हऊवा।
मोदी का गांव था, सो मैंने भी कोई प्रतिवाद नहीं किया। डेढ़ घंटा वहां लोग हमें भाजपा का एजेंट समझते रहे। उसके बाद वे जाकर खुले और भरोसा कायम हुआ। पटेल, गोंड, भर और ठाकुरों के इस गांव में केवल ठाकुर ही कायदे से भाजपा के वोटर माने जाने चाहिए, लेकिन यह भ्रम भी टूट गया जब हम भोतू पहलवान के पोते से मिले, जो सपा सरकार के बनवाए अखाड़े में अपने ठाकुर मित्रों के साथ हवा खा रहे थे।
विकास! यह शब्द सुनकर राजपूताना जाग गया। पहलवान के पोते ने कहा – का विकास? एससी एसटी अपने को प्रधानमंत्री समझने लगा है। मारब त हरिजन एक्ट लग जाई। पद्मावती फिल्म पर कुछ नहीं किए मोदी। गांव में भी सब काम लोहिया ग्राम के अन्तर्गत किया गया है। तो क्या झांट उपारे हैं मोदी जी? मन तो एकदम नहीं है मोदी को वोट देने का लेकिन का करें, सवर्ण हैं तो कहां जाएंगे?” पहलवान के तीनों नौजवान बेबसी में मुस्कुराने से रह गए।
अब सवाल है कि मोदी को वोट देना भोतू ठाकुर के लड़कों की मजबूरी हो सकती है, लेकिन भर, गोंड और पटेल की क्यों हो? दूसरी बात, जब ठाकुर का मन मोदी से खराब है, ऐसे में निचली जातियों को तो उल्टी आ रही होगी? मने अकेले डेढ़ लाख पटेल नहीं, मामला लंबा फंसा है। इसीलिए क्या नेता, क्या पत्रकार, सब रोहनिया भाग रहे हैं। चूंकि सेंध भाजपा के खजाने में लगी है तो रोहनिया वाले शहर से आने वालों को भाजपाई समझ रहे हैं- क्या नेता, क्या पत्रकार!