शुभ्रा सुमन
“..वो मर गया ”
“कौन.. कौन मर गया..”
“अ.. आह.. देखो.. देखो क्या हो गया.. ”
“क.. क्या.. क्या बोल रहे हो काका.. क्या हुआ..”
“बुरा हुआ है.. बहुत बुरा.. उसको मरना नहीं था..”
ये कहते – कहते काका की आंखें बन्द होने लगीं.. नींद की गोलियां असर कर रही थीं.. दर्द जाता रहा.. दिमाग अब कुछ भी सोचने की स्थिति में नहीं था.. शुभय ने बत्तियां बुझा दीं और लॉन में चला आया..
शाम हो गई थी.. या यूं कहें कि ये शाम और रात के बीच का वक़्त था.. गहरा अंधेरा धीरे – धीरे अपने पांव पसार रहा था.. सूरज डूबने को था और उसकी लालिमा पर रात की काली चादर जैसे चुपके – चुपके हावी होती जा रही थी.. ये पहर उसे बहुत डराता है.. बचपन से ही.. उसे लगता है जैसे यकायक सब ख़ामोश हुआ जाता है.. दिनभर की हलचल एक सन्नाटे में तब्दील हुई जाती है.. ये फैलता सन्नाटा उसे काटने को दौड़ता है.. लगता है जैसे कुछ बीत रहा है जो कभी वापस नहीं आएगा.. यही सब सोचते – सोचते रात हो गई..
रात उसे पसन्द है.. वो झट से उठा.. सोचा अपने लिए कॉफी बनाएगा.. लेकिन फिर पता नहीं क्या सोचकर लॉन की एक तरफ फूलों की क्यारी के पास लगे बेंच पर जाकर बैठ गया.. “.. काका क्या कह रहे थे.. क्यों मरने की बात कर रहे थे.. अब तो इतने साल गुज़र गए.. कभी तो ऐसी बात नहीं की.. फिर क्या हुआ होगा..”
ध्यान भटकाने के लिए शुभय कमरे के भीतर गया और अपनी पसंदीदा किताब आलमारी से निकाली.. वो हमेशा ऐसा ही तो करता है.. बड़ी से बड़ी परेशानी हो.. किताबें उसे उन परेशानियों से दूर किसी और दुनिया में ले जाती हैं.. उन जादुई पन्नों में खोकर जब – जब उसे नींद आई है, अपनी किताब को सीने से लगाकर उसने सपनों की दुनिया में उड़ानें भरी है… एक बार तो उसके सपने में बुद्ध आए थे.. नदी किनारे बैठकर खीर खाते बुद्ध.. वो बड़ी – बड़ी सौम्य आंखें और उन आंखो का वो अद्भुत ठहराव.. क्या वो कभी भूल सकता था.. वो पेड़ के पीछे छुपकर उन्हें निहार रहा था कि कमरे में हुई खिटपिट ने उसे जगा दिया था.. उठते ही उसे ध्यान आया कि हफ्ते भर पहले उसने महात्मा बुद्ध पर एक किताब पढ़ी थी..
आज भी उसने एक किताब उठाई.. ध्यान लगाने के सारे जतन किए लेकिन कुछ न हो सका.. रह – रह कर उसके कानों में काका के शब्द गूंज रहे थे “..वो मर गया..” उसने लंबी सांस ली और कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया.. नज़र खिड़की के उसपार गई तो बरामदे का बल्ब अंधेरे से दो – दो हाथ कर रहा था.. अचानक कई साल पहले की तस्वीर उसकी आंखों के सामने कौंधी..
उस रोज़ भी बल्ब ऐसे ही जल रहा था.. घुप अंधेरे मे उसकी पीली रोशनी ऐसी लग रही थी मानो काली चादर पर किसी ने थोड़ी सी हल्दी मल दी हो.. काका ने काम खत्म करके बरामदे में पड़े खटोले पर पांव सीधे ही किए थे कि उधर से तेज़ आवाज़ें सुनकर उठ बैठे थे.. ” ..किशनवा को पीट रहे हैं.. चचा.. ए चचा..”
काका को एक पल लगा कि मस्ती मज़ाक में लड़के ने झगड़ा कर लिया है.. सो बैठे – बैठे ही उकता कर बोले थे… ” ..किससे भिड़ गया है रे.. ए.. ए सुन तो.. रमेश.. बुला ला उसको.. आज क्लास लगाएंगे उसकी..” तब तक रमेश पास आ गया था..
बरामदे की सीढ़ियों पर अपने दोनों हाथों से सहारा लेते हुए एक सांस में कहता चला गया.. “.. काका चलो.. जल्दी चलो.. दूसरे गांव.. किशनवा को पकड़ लिए हैं.. कहते हैं चोरी किया है.. चलो काका.. मार डालेंगे.. क.. क.. किशन.. चलो.. का..का ”
इतना कहते हुए रमेश की हालत पस्त हो गई थी.. काका ने देखा उसकी बाईं आंख के बगल वाले हिस्से से खून बह रहा है.. कपड़े जगह – जगह से फटे हैं और पैर लहूलुहान हैं.. इससे पहले कि काका कुछ कह पाते गांव के कुछ लोग वहां पहुंच गए थे.. काका को ढांढस बंधाने.. उन्हें सबसे मनहूस ख़बर देने..
उस शाम शुभय घर में अकेला था.. और शोर सुनकर अपने कमरे से बाहर निकल आया था.. उसे याद हैं काका के एक – एक आंसू.. उनका तड़पना, उनका बिलखना.. अपने इकलौते बेटे की लाश को देर तक चूमना.. वो चित्कार.. वो बेबसी.. शुभय कुछ नहीं भूला.. काका के उस दर्द में शुभय भी हिस्सेदार था.. इसलिए उस दिन के बाद उसने खुद से उन्हें कभी अलग नहीं होने दिया.. पढ़ने के लिए शहर गया तो अपना पुराना फोन काका को देकर.. ताकि उनसे बात होती रहे.. शहर में नौकरी लगी तो उन्हें भी साथ ले गया.. और आज जब काका बीमार हैं तो नौकरी से छुट्टी लेकर दोनों कुछ दिन के लिए गांव आ गए हैं.. ताकि काका की देखभाल हो सके.. ज़िंदगी भर की गई अपनी देखभाल का कुछ कर्ज अदा किया जा सके..
“.. लेकिन काका ने वो शब्द क्यों कहे.. क्या उन्हें फिर से सब याद आ रहा था.. पिछले कई सालों में उसने पूरी कोशिश की कि काका को किशन की कमी महसूस न हो.. बीमारी की हालत में भी वो कभी इस तरह परेशान नहीं हुए.. फिर आज क्यों ..” ये सब सोचते – सोचते शुभय न जाने कब नींद के समंदर में गोते लगाने लगा.. बगल वाले कमरे से काका के खर्राटों की आवाज़ धीमे – धीमे उसके कानों में पड़ रही थीं..
सुबह नींद खुली तो शुभय सबसे पहले काका के कमरे में गया.. आदत के मुताबिक काका उससे पहले उठ गए थे.. पर वो फुर्ती न थी.. चुपचाप अपने बिस्तर पर पड़े थे.. दवाइयों का असर चेहरे पर साफ दिख रहा था.. चश्मा लगाकर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहे थे..
“.. क्या पढ़ रहे हो काका” शुभय ने कमरे में दाखिल होते हुए पूछा..
“बेटा अख़बार पढ़ रहा हूं.. किताबें सब शहर छोड़ आया इस बार.. और तुम काम भी नहीं करने देते.. तो अख़बार पढ़कर वक़्त काट रहा हूं”
“..अच्छा.. क्या लिखा है?.. ” शुभय ने बात आगे बढ़ाने के लिए यूं ही सवाल कर दिया..
“.. बेटा.. कुछ नहीं बदला.. पहले तो इंसान मरते थे.. अब.. अब तो ज़मीर मर गया है.. लोग अफ़सोस बाद में करते हैं.. मरे हुए की जात पहले पूछते हैं.. ये.. कल की ख़बर.. वो.. सब पार्टी वाले..”
“.. काका.. अख़बार इधर दो.. ” शुभय ने काका के हाथ से अख़बार लिया और उन्हें अपनी किताब थमाई.. किताब के कवर पर बुद्ध की फोटो थी.. काका जब तक आप ठीक होते हो.. ये किताब पूरी पढ़ जाओ.. अच्छी किताब है.. आपको मालूम है इसकी सबसे अच्छी बात क्या है…..”
शुभय ने काका का ध्यान अख़बार की ख़बर से भटका दिया था.. अब उसे मालूम था कि रात को काका जिसकी मौत की बात कर रहे थे असल में वो इस समाज का ज़मीर था.. इंसानियत थी..
“नहीं.. काका अब ये सदमा नहीं झेल पाएंगे.. उन्हें इन सबसे दूर रखना ही ठीक है..”
(लेखिका टीवी जर्नलिस्ट हैं )