Sunday - 27 October 2024 - 9:30 PM

द्वंदात्मकता ! आदिम साम्यवाद से आधुनिक लोकतंत्र तक

के. पी.सिंह

द्वंदात्मकता प्रकृति का चरित्र है। गुफा काल में जब उत्पादन के साधनों का आविष्कार नहीं हुआ था और माक्र्सवादियों के अनुसार उस समय आदिम साम्यवाद का समाज था, वर्ग संघर्ष की जड़ें उस दौर में भी खोजी जा सकती हैं। डा. अंबेडकर के अनुसार पौराणिक साहित्य में जिस देवासुर संग्राम का उल्लेख मिलता है वह अलग-अलग नस्लों का संघर्ष नही था।

उनके मुताबिक यह आर्यों के ही दो कबीलों का संघर्ष था। जिनमें एक वैदिक कबीला था और एक वेद को न मानने वाला अवैदिक कबीला।

उपनिषदों में वर्ग संघर्ष की नजीर

वर्ग संघर्ष की एक और दिलचस्प नजीर उपनिषदों में मिलती है। कहा जाता है कि उपनिषदों का साहित्य ब्रहमवाद के प्रतिरोध का साहित्य है। जो भी हो लेकिन प्राचीन भारतीय वांग्मय को पढ़ने से यह पता चलता है कि राज्यों की व्यवस्था के उदयकाल में ब्राहमण कोई जाति न होकर न्यायिक कैडर था।

अत्यंत त्यागमय और संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा लेकर स्वेच्छा से कोई व्यक्ति इस कैडर में शामिल हो सकता था। उसे सभी तरह के दंडों से मुक्ति की सुविधा प्राप्त थी तांकि वह पूरी निर्भीकता से राजा का आचरण अन्यथा होने पर उसे अधार्मिक करार दे सके।

जब गौरव ही था सर्वोपरि लक्ष्य

ब्राहमण को स्वयं सदाचरण का मानक बनकर जिंदगी जीनी पड़ती थी जो बेहद कठिन साधना थी। लेकिन जब इसके कारण उन्हें बहुत अधिक गौरव मिला तो उनकी संताने इसे बनाये रखने के लिए ब्राहमण कैडर का ही वरण करने की ललक दिखाने लगी। इसके खिलाफ विद्रोह तब हुआ जब प्रत्येक व्यक्ति की विविध अभिरुचियों के अनुरूप ब्राहमणों ने भी अपने लिए प्रतिबंधित जीवन में ढील की अपेक्षा शुरू कर दी।

भृगु का हस्तक्षेप

भृगु ऐसे ब्राहमण थे जिनमें शौर्य की भी प्रवृत्ति बहुतायत में थी। उनके आचरण में इसका पुट आ जाता था। नतीजतन उनका और विष्णु का संघर्ष हो गया। भृगु द्वारा विष्णु को पदाघात करने की बहुश्रुत कथा लाक्षणिक है। भृगु के संघर्ष के कारण शूरवीर ब्राहमणों को भी शस्त्र शिक्षा की अनुमति मिल गई। परशुराम भृगु के ही वंशज थे। उनके पिता ऋषि जमदग्नि थे और मां रेणुका।

उस समय जातियां स्थिर नही हो पाईं थीं इसलिए ब्राहमणों और क्षत्रियों के बीच रोटी-बेटी के संबंध प्रचलित थे। न केवल परशुराम की मां क्षत्रिय थीं बल्कि उनकी दादी सत्यवती भी क्षत्रिय और राजऋषि विश्वामित्र की बहन थीं। महाभारत के भीष्म, द्रोण व कर्ण सहित कई महापराक्रमी योद्धाओं को परशुराम ने शस्त्र संचालन सिखाया था।

वर्ग संघर्ष का परिणाम था सहश्त्रार्जुन वध

हैहय वंशीय क्षत्रिय राजा सहश्त्रार्जुन ब्राहमणों के लिए ब्रहम विद्या के अतिरिक्त अन्य कोई उद्यम न करने के निषेध का कटटर पक्षधर था। जिसकी वजह से शस्त्र विद्या सीखने और सिखाने वाले भृगुवंशीय ब्रहमवादियों का वह बैरी हो गया और उसने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या कर डाली। परशुराम ने इसका प्रतिशोध लिया जिसकी कथा सर्वविदित है। यह महत्वाकांक्षी दार्शनिक वर्ग (ब्राहमण) द्वारा सत्ता के खिलाफ संघर्ष के दौर का एक उपाख्यायन है।

ब्रहमवाद से पौरोहित्य की ओर अग्रसरता

समाज के भौतिक विकास के साथ-साथ इस संघर्ष ने कई और रूप लिए। ब्रहम विद्यानुरागी दार्शनिक वर्ग का पौरोहित्य वर्ग में रूपांतरण भी इसका एक चरण है। प्रारंभिक काल में इसने ब्रहमवादियों में गतिशीलता का उत्प्रेरण किया। लेकिन परवर्ती दौर में यह उनके ठहराव का भी कारण बन गया।

भौतिक दौड़ में पिछड़ने का डर समाया

कर्मकांड कराने का अधिकार ब्रहमवादियों की संतानों को गौरव तो दिला रहे थे लेकिन यह गौरव सिर्फ मनोवैज्ञानिक था। जिसकी कीमत उन्हें भौतिक दौर में बहुत पीछे छूट जाने के रूप में चुकानी पड़ रही थी। आधुनिक काल खंड में पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं ने इसे महसूस किया जिन पर ब्राहमणवाद को अत्यधिक प्रोत्साहित करने के आरोप लगते रहे थे।

जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के चलते कर्मकांडों के मोह से ब्रहमवादियों को उबारकर उन्हें यथार्थ का परिचय कराया। जिसके परिणाम स्वरूप उनकी बौद्धिक ऊर्जा उच्च प्रशासनिक पदों के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में उनके भारी वर्चस्व के रूप में फलीभूत होने लगी।

पुनरुत्थान के साथ नई द्वंदात्मकता का उभार

सकारात्मक बदलाव का दूसरा नाम ही क्रांति है। क्रांति के दौर में उसके अपनी परिणति पर पहुंचने के पहले तक प्रतिक्रांति और पुनरुत्थानवाद के कई झटके आते हैं। ब्रहमवादियों की क्रांतिकारी अग्रसरता भी इसका अपवाद नही है। परशुराम और उनके पूर्वज शस्त्र संचालन में इतने प्रवीण थे कि आने वाले राजाओं को वे ही इसकी दीक्षा देते थे लेकिन इसका उपयोग करके स्वयं राज्य सत्ता हासिल करने की अनुमति उन्हें नही थी।

मजेदार स्थिति यह है कि जब राजनीतिक संदर्भ में धर्म के सामाजिक नियम लागू हुए तो सहश्त्रार्जुन जैसी प्रवृत्तियां उनके सामने फिर सिर उठाती दिखने लगी हैं। धर्म पर ब्रहमवादियों का एकाधिकार माना जाता है। खासतौर से संत तो किसी भी जाति से मान्य है लेकिन धार्मिक पद पर अभिषेक के लिए पुश्तैनी ब्रहमवादी होना अनिवार्य है।

यह वर्जना नई धार्मिक क्रांति में चुपके से तोड़ दी गई। अब तेजी से गैर ब्राहमण धार्मिक मठाधीश के रूप में स्वीकार हो रहे हैं। चूंकि ब्राहमणों के लिए सत्ता वर्जित होने की धारणा थी।

इसलिए धार्मिक चोले में आये किसी ब्राहमण राजनीतिज्ञ को स्वीकार नही किया जा रहा था। लेकिन गैर ब्राहमण धार्मिक उपाधि धारकों पर ऐसी कोई वर्जना लागू नही होती। नतीजतन हाल में धार्मिक क्षेत्र की हस्तियों का सांसद, विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री बनने का सिलसिला तेज हो गया है। इसमें कहीं न कहीं वर्ग चेतना का सिद्धांत निहित है और यह द्वंदात्मकता के एक पहलू के उभरने का भी संकेत है।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com