Saturday - 2 November 2024 - 6:18 PM

बहुत पेचीदा सियासी मिजाज है योगी के गढ़ गोरखपुर का

मल्लिका दूबे

बड़ा पेचीदा सा है मिजाज हमारा, यूं ही मसरूर न होगा।
जिसने जाना वो माशूक ठहरा, और जो ना जाने वो मुतनफर।

सियासत में कामयाबी के तमाम नुस्खे होते हैं । कहीं धाति-धर्म की गणित लगानी पड़ती है तो कहीं सुनहरे ख्वाबों की खेती करनी पड़ती है। सियासी समीकरणों से दूसरे के किसे में सेंध लगाना पड़ता है तो रूठों को मनाना पड़ता है। पर, इन सबसे बढ़कर होता है इलाके का मिजाज समझना और खुद को उस मिजाज के मुताबिक ढाल लेना।

संसदीय चुनाव में इन दिनों गोरखपुर की सीट पूरे देश की नजर में है। यह यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह क्षेत्र है। यहां दो उप चुनावों समेत अब तक हुए 18 चुनावों में दस बार गोरक्षपीठ के महंत का आधिपत्य रहा है। एक बार महंत दिग्विजयनाथ जीते तो एक उप चुनाव और तीन आम चुनावों में महंत अवेद्यनाथ। पिछले उप चुनाव से पहले लगातार पांच बार जीत का रिकार्ड महंत योगी आदित्यनाथ के नाम रहा है।

गोरखपुर को समझना इतना आसान नहीं है

महंत दिग्विजय नाथ

अर्से तक गोरक्षपीठ के आधिपत्य वाली इस सीट पर पीठ को भी पूर्व में तगड़ा झटका लग चुका है। महंत दिग्विजयनाथ यहां दो बार चुनाव हार चुके हैं तो महंत अवेद्यनाथ भी एक बार संसदीय चुनाव हार चुके हैं। पांच बार जीतकर अपराजेय मान लिए गए योगी आदित्यनाथ भी अपने दूसरे चुनाव में बेहद करीबी मुकाबले में हारते-हारते जीते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके इस्तीफे से खाली हुई सीट पर उप चुनाव में भाजपा को मिली करारी शिकस्त आज भी देश में जेरे बहस में है। यह हार उस समय हुई जब देश और सूबे दोनों जगहों पर बीजेपी का राज रहा।

फिराक गोरखपुरी को भी मिली थी शिकस्त

मिजाज ए गोरखपुर की चर्चा में काबिले याद यह भी कि देश ही नहीं विश्व में अदब की दुनिया की नामचीन हस्ती रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी” के चुनावी अरमान भी यहां खेत रहे। फिराक गोरखपुरी यहां आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में आचार्य जेबी कृपलानी की पार्टी केएमपीपी के कैंडीडेट थे लेकिन उनका अक्खड़ मिजाज जनता की मिजाज से तालमेल नहीं बैठाया पाया, उन्हें बुरी तरह परास्त होना पड़ा।

फिराक़ गोरखपुरी

गोरखपुर के उप चुनाव में पड़ी गठबंधन की नींव

वर्तमान समय में पूरे सूबे में बीजेपी को परेशान कर रहा सपा और बसपा का गठबंधन भी गोरखपुर के मिजाज की ही देन है। सालभर पहले लोकसभा के उप चुनाव में सपा प्रत्याशी को प्रायोगिक तौर पर समर्थन देने वाली बसपा ने उप चुनाव के परिणाम के बाद ही अपने गिले-शिकवे दूर किये थे। कौन सोच सकता था कि गेस्ट हाउस कांड को लेकर सपा पर हमेशा आक्रामक रहीं बसपा सुप्रीमो सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ेंगी। ऐसा संभव हुआ तो यह गोरखपुर के उप चुनाव की परिणाम से ही।

क्या है मिजाज ए गोरखपुर

गोरखपुरिया चुनावी मिजाज बेहद अलहदा है। गोरखपुर के लोगों को किसी को भी चुनावी सिरमौर बनाने और पलभर में सिर से उठाकर नीचे पटक देने में देर नहीं लगती। जिस गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ पूरे देश में विख्यात रहे उन्हें भी गोरखपुर की जनता ने दो चुनावों में कुर्सी  से दूर ही रखा । तीसरे चुनाव में उनके रूख में बदलाव आया तो लोगों ने फौरन फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। उनके ब्राह्मलीन होने के बाद हुए उप चुनाव में उनके शिष्य महंत अवेद्यनाथ को जिताया तो लेकिन एक साल बाद ही हुए आम चुनाव में उन्हें भी धराशायी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि डेढ़ दशक तक उन्होंने संसदीय चुनावों से ही दूरी बनाए रखी ।

कई बार दिए चौंकाऊ परिणाम

त्रिभुवन नारायण सिंह

संसदीय चुनावों की चर्चा के साथ गोरखपुर के मिजाज में कुछ और दिलचस्प पहलू भी हैं। मसलन, बिना किसी सदन के सदस्य के रूप में यूपी के पहले मुख्यमंत्री बने त्रिभुवन नारायण सिंह को विधायक बनने के लिए 1972 में उप चुनाव लड़ना पड़ा। जगह चुनी उन्होंने चुनाव गोरखपुर संसदीय क्षेत्र की विधानसभा रही मानीराम को। यह गोरखपुरिए ही थे जिन्होंने त्रिभुवन नाराण सिंह के अरमानों पर पानी फेर दिया। वह संगठन कांग्रेस के प्रत्याशी थे लेकिन जनता का मिजाज भाया कांग्रेस प्रत्याशी रामकृष्ण द्विवेदी को। त्रिभुअन नारायण सिंह मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हार गए।

महापौर के चुनाव की रही पूरे देश-दुनिया में चर्चा

गोरखपुर के किन्नर महापौर की चर्चा न हो तो यहां के मिजाज की चर्चा अधूरी सी लगेगी। साल था 2000 का। गोरखपुर की चर्चा यहां के करीब आधा दर्जन मंत्रियों के चलते होती थी। जनप्रतिनिधियों से जनता की नाराजगी थी। महापौर का चुनाव हुआ। कुछ लोगों ने प्रयोग के तौर पर किन्नर आशा देवी उर्फ अमरनाथ को प्रत्याशी बना दिया। नतीजा ऐसा आया कि गोरखपुर देश क्या पूरे विश्व में चर्चा में आया गया। किन्नर ने दलों के प्रत्याशियों को बुरी शिकस्त दी। यह वह चुनाव था जब गोरखपुर के अल्हड़ मिजाज पर देश-दुनिया की नजर ठहरी थी।

वर्तमान केंद्रीय मंत्री ने तब कर ली विधायकी के चुनाव से तौबा

2002 के विधानसभा चुनाव को कैसे भूला जा सकता है। तब तक चार बार के विधायक और वर्तमान  केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने योगी आदित्यनाथ नाराज चल रहे थे। शिव प्रताप शुक्ला के भाजपा प्रत्याशी होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ ने बच्चों के डाक्टर राधामोहन दास अग्रवाल को हिन्दू महासभा का प्रत्याशी बनवा दिया। डा. अग्रवाल  की एक अलग स्टाइल रही है। सामान्य पैंट शर्ट, गले में भगवा पट्टा और बिना किसी तामझाम के लोगों के बीच मिक्स हो जाना। एक तो योगी का कैंडीडेट, दूसरा डा. आरएमडी की सामान्य आदमी की छवि वाली पर्सनल अपील लोगों को खूब भायी। नतीजा वही हुआ जिसका आप अंदाजा लगा सकते हैं। इस चुनाव में शिव प्रताप शुक्ला की ऐसी पराजय हुई कि उसके बाद उन्होंने विधायकी के चुनाव से ही तौबा कर ली।

कभी ड्राइव तो कभी अजीब उदासीनता

गोरखपुर की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुमार हर्ष मानते हैं कि गोरखपुर की जनता कभी किसी ड्राइव में रहती है तो कभी यहां अजीब किस्म की उदासीनता दिखती है। बकौल कुमार हर्ष, वर्ष 2002 में महापौर के चुनाव में किन्नर आशा देवी की जीत जनता का तत्कालीन राजनीति से विद्रोह था। 2002 के विधानसभा चुनाव में शिव प्रताप शुक्ला के पराजय में भी यही फैक्टर चला। लेकिन, वर्ष 2018 के उप चुनाव में जनता रिवोल्ट के मूड में नहीं बल्कि उदासीन थी। दो टूक में कहें तो यहां जनता के मिजाज की थ्रूआउट मैपिंग करना नेताओं के लिए आसान काम नहीं है क्योंकि यह इमोशनली ड्रिवेन इलाका है।

मंडल लहर का नहीं चला जादू

गोरखपुर के मिजाज की चर्चा हुई है तो यहां एक और  चुनाव की याद ताजा कर लेते हैं। वो 1989 का लोकसभा चुनाव था जब जबरदस्त मंडल लहर चल रही थी और हर जगह जनता दल के प्रत्याशियों का बोलबाला था। इस चुनाव में गोरक्षपीठ के महंत अवेद्यनाथ हिन्दू महासभा के प्रत्याशी के रूप में मैदान में आए, इस बीच उन्होंने अपने सामाजिक समरसता के कार्यक्रमों से अपनी एक अलग इमेज बना ली थी। जनता उनके साथ जुड़ी और मंडल लहर को नकार उन्हें स्वीकार कर लिया।

क्यों बार-बार भाते रहे योगी

सवाल यह उठ सकता है कि गोरखपुर के मिजाज में अजब सा ठेठपन है तो योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार सांसद कैसे चुन लिए गए? इस पर यह याद करना जरूरी होगा कि योगी आदित्यनाथ अपना दूसरा चुनाव हारते-हारते बचे थे। इससे उन्होंने सबक लिया और जनता के बीच अपनी सीधी पैठ बढ़ायी। वह लोगों के लिए गोरक्षपीठ के महंत कम बने बल्कि इस पर अधिक फोकस किया कि कैसे लोगों के बीच अपनी नजदीकियत को महसूस कराया जाए। या यूं कहें  कि उन्होंने गोरखपुर का मिजाज भांप लिया।

योगी गोरखपुर के लोगों के लिए ऐसे सुलभ नेता बन गये जिससे कोई भी, कभी भी सीधे जाकर मिल सकता था, थाने पर या एसडीएम तक सीधे फोन करा सकता था। योगी जनता के मिजाज के अनुरूप ही जहां भी लोगों की समस्या को लेकर बात करते तो उनका अपना अलग अंदाज होता था जो लोगों को भा जाता था। अपनी छोटी सी समस्या पर भी योगी से थानेदार, तहसीलदार तक का खरी-खोटी सुनवा लेने वाली जनता को योगी में अपना मिजाज नजर आता रहा। छोटे-बड़े मुद्दों पर चिलचिलाती गर्मी में भी आठ-दस किलोमीटर का मार्च निकालकर अफसरों की घेराबंदी करने की योगी की शैली जनता के मिजाज को मैच करती थी।

योगी प्रत्याशी नहीं तो कठिन हो गयी भाजपा की राह

जैसे ही योगी मुख्यमंत्री बने और यहां संसदीय उप चुनाव की नौबत आयी, गोरखपुर ने अपना अलहदा मिजाज एक बार फिर पूरे देश को दिखा दिया। योगी खुद मैदान में नहीं थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद वह लोगों के लिए ऐसे योगी भी नहीं थे जो हर छोटी-बड़ी बात पर सड़क पर निकल लें । ऐसे मे लोगों को भाजपा प्रत्याशी में वह दिलचस्पी नहीं दिखी जो इसके पहले लगातार कई चुनावों में रहती थी। इसका नतीजा भी पूरे देश ने देखा। साफ है कि यहां की जनता अपने ऊपर कोई बोझ महसूस नहीं करती। उसे जबरदस्ती कोई पसंदगी नहीं करायी जा सकती। वह पूरी तरह अपनी मर्जी की मालिक है। जो जी में आएगा, करना वही है।

इस चुनाव में कैसा होगा गोरखपुरिया मिजाज एक बार फिर जनता का मिजाज ही यहां परिणाम को प्रभावित करता नजर आएगा। लोगों के मिजाज से गठबंधन का प्रत्याशी मैच करेगा या भाजपा प्रत्याशी का ग्लैमरस-फिल्मी अंदाज या फिर कांग्रेस का ब्राह्मण कार्ड। इस पर सबकी नजर है। भाजपा यहां उप चुनाव में गहरा जख्म खा चुकी है। ऐसे में गोरखपुरी मिजाज से तालमेल बनाने की बड़ी जिम्मेदारी उसके प्रत्याशी पर ही है। इस चुनाव में उसके प्रत्याशी भोजपुरी फिल्मी दुनिया के बड़े कलाकार रवि किशन शुक्ला हैं। उन्हें देखने और उनके साथ सेल्फी लेने वालों की भीड़ उमड़ रही है लेकिन यह भीड़ उनका वोटर बनकर उन्हें सिरमौर बनाएगी?

यह सवाल इसलिए भी उठता है कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में यहां से भोजपुरी फिल्मों के वर्तमान दौर के पहले सुपरस्टार मनोज तिवारी का बुरा हश्र भी पूरे देश ने देखा है। भाजपा में आकर दिल्ली के सांसद वहां के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बने मनोज तिवारी तब सपा प्रत्याशी के रूप में गोरखपुर के मैदान में आये थे। सपा को यह उम्मीद थी कि इस फिल्म कलाकार की लोकप्रियता को गोरखपुरी हाथोंहाथ लेंगे। पर, जब परिणाम आया तो मनोज तिवारी अपनी चुनावी जमानत भी गंवा बैठे थे।
यह गोरखपुरी चुनावी मिजाज ही है जो सूबे के मुख्यमंत्री इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रवि किशन के लिए दिन रात एक करते नजर आ रहे हैं। योगी यहां के मिजाज को समझते हैं, ऐसे में उनके स्तर पर तो पूरी कोशिश हो रही है लेकिन यहां के लोगों के मिजाज में रवि किशन कितना ढल पाते हैं, यह चुनाव परिणाम से ही पता चलेगा।

गोरखपुर के मिजाज पर मशहूर शायर कलीम कैसर की यह गजल इस चुनाव में बड़ी मौजूं नजर आती है-

अजब शहर है जिसको हम गोरखपुर कहते हैं।
इसे कुछ कहने वाले लोग तो भरपूर कहते हैं।।
जो अपना कहते हैं इसको, ये उनका भी नहीं होता।
कभी तो अपना ये होकर भी, अपना भी नहीं होता।।
समझते जो इसे संपत्ति अपनी मुंह की खाते हैं।
मगर मजबूरियों के आगे सब भूल जाते हैं।।
कई तो बाहरी आकर के किस्मत आजमाते हैं।
पुरानी इसकी परिपाटी को वो भी भूल जाते हैं।।
किसी का भी नहीं ये शहर और  वैसे तो सबका है।
मिजाज इसका है समझ से है परे लेकिन गजब का है।।
जो हैं स्थानीय मारे गये वो भी सियासत में।
कई तो प्रेम से मारे गये और  कुछ तो नफरत में।।
दुआ ईश्वर से है इसको सदा आबाद रहना है।
रहें हम, न रहें पर इसको जिन्दाबाद रहना है।।

 
Radio_Prabhat
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