अभिषेक श्रीवास्तव
जैसे लड़की की शादी में विदाई के ठीक बाद डेरा-डंडा तंबू-कनात सब सन्नाटे में लहराने लगता है और लड़की का बाप अनमने से केटरर के हिसाब में जुटा रहता है, ठीक उसी मुद्रा और माहौल में पांड़े गुरु ढेर सारी पोथी लेकर उलझे पड़े थे।
फि़ज़ा में में फूटे हुए गुब्बारों, गुलाब की दबी-कुचली सड़ी हुई पंखुडि़यों, गाड़ी के धुएं और अप्रैल की ताज़ा लू की मिश्रित गंध थी। कुत्ते दो दिन से भौंक-भौंक कर मरे पड़े थे। सांड़ बेचैन थे। शहर में पेड़ बचे नहीं हैं और उन्हें पीठ खुजलाने को खंबा नहीं मिल रहा था। दरअसल, किसी ने घरातियों को बता दिया था कि बारात लौटने के बाद खिसियानी बिल्ली खंबा नोचेगी, तो आयोजकों ने शहर से खंबे ही उखड़वा दिए थे। बचे थे केवल गोल-गोल गड्ढे, जो हर उत्सव पर काशी की सड़कों पर लकड़ी के बैरिकेड तानने के लिए उभर आते हैं।
भाषा भी अजीब चीज़ है। अगर आप सांस्कृतिक जीव नहीं हैं, तो अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। किसी को जिलाते-जिलाते जिंदा मार सकते हैं। यह समस्या सबसे ज्यादा संस्कृति के घोषित रक्षकों के साथ पैदा होती है जिनके पैदाइशी संस्कार में न संस्कृत होती है, न संस्कृति।
मसलन, बारात आने से ठीक पहले राज्य की विधानसभा में दो साल पहले काशी से निर्वाचित एक गार्जियन ने एक पोस्टर जारी करवाया। नाम का लोभ संवरण करना इस दुनिया में सबसे कठिन काम है, सो उन्होंने भी रंगीन पोस्टर के सबसे नीचे दाहिनी ओर छोटे से फॉन्ट में अपना नाम डाल दिया। दिक्कत नाम में नहीं, विशेषण में थी। उनके नहीं, दूल्हे के। उसमें दो विशेषण थे- एक ‘’हिंदू हृदय सम्राट’’ और दूसरा ‘’परम देशभक्त’’।
ऐसा नहीं कि पांडे गुरु की निगाह ‘’देशभक्त’’ से पहले लगे ‘’परम’’ पर नहीं गई हो, लेकिन उन्होंने घरातियों के कहने पर दबाव में चुप्पी साध ली। उन्हें भी लगा कि भाषा का इतना परम ज्ञान काशीनाथ सिंह के अलावा इस शहर में और किसको होगा। वैसे भी, शहर की संस्कृति को तो संस्कृति रक्षक चर ही गए हैं। कौन जानता है इस शहर में कि बनारस में ‘परम’’ किसको कहा जाता है।
जाहिर है, निर्वाचित गार्जियन से यह उम्मीद की जानी चाहिए थी लेकिन वे भी तो उसी संस्कृतिरक्षकों वाले खेमे से आते हैं। कितना पढ़े होंगे? ज्यादा से ज्यादा इंटर? या बीए? ‘’काशी का अस्सी’’ पढ़ कर परम का बनारसी अर्थ समझने वाले तो कब का दिल्ली निकल लिए। दो-चार ठे जो बीएचयू के हिंदी विभाग में बचे हैं, सब शाखा लगाने लगे हैं। जान-बूझ कर चुप रहेंगे। बाकी, काशीनाथ का घुटना अब साथ दे नहीं रहा कि सुंदरपुर से चलकर बारात में लंका आते और उचक कर दूल्हे से कहते, ‘’देखा, कुल बनरसिया तोहके परम लिख के चूतिया बना देलन।‘’
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तो काशी की भाषा-परंपरा का प्रकांड ज्ञान होते हुए भी, यह जानते हुए कि काशी में चूतिया के लिए ‘परम’ का प्रयोग करते हैं, पांड़े गुरु बारात आने से पहले चुप मार गए थे। इसका मतलब है कि उनकी आज की चिंता का विषय यह तो नहीं ही होगा। पोथी-पोथा लेकर इतनी छंटाई-बिनाई का प्रयोजन पक्का कुछ ठोस ही होगा।
यही सोचकर भक्त चेलवा उनके पास पहुंचा और पोथी के ढेर में झांकने लगा। पांड़े गुरु उसे झांकता देखकर भड़क गए- ‘’का हौ बे?’’ चेले ने दम साधा- ‘’गुरु, तोहे परेशान देखली त आ गइली, कुछ भयल हौ का?”
जिस तरह हर ज्ञानी को एक धैर्यवान श्रोता की जरूरत होती है, पांड़े गुरु भी इस मामले में अपवाद नहीं थे। ‘’सर्वनाश! सत्यानाश! कुम्भी पाक नरक में जाएंगे हरामजादे!’’ मतिभ्रम चेले ने आग्रह किया, ‘’गुरु, थोड़ा खुलासा किया जाए मामला क्या है।‘’
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जिज्ञासु श्रोता देख पांड़े गुरु हलका सा दाहिने झुके, वात-प्रवाह का खुलासा होते ही थोड़ा सा कहरे, माथे पर अटका चश्मा आंख पर ले आए, सिर पर त्योरियां चढ़ाए, अतिगंभीर मुद्रा बनाए और जनेऊ रगड़ते हुए खड़ी में कहते भए- ‘’देखो, घरातियों ने दूल्हे का चूतिया काट दिया है।
पहिले पोस्टरवा में सब परम लिखे तो मैं चुप रहा, लेकिन कल त सहियो में परम बना दिए सब उसको। दंडपाणि का नाम ले के कालभैरव घुमा दिए। ये जोड़ी नहीं चलेगी… ईश्वर उनकी रक्षा करे।‘’
चेलवा दूसरे भक्तों की तरह बारात में गया था। उसने प्रमाण पेला, ‘गुरु, दंडपाणि भैरव तो गए रहे मोदीजी। हम खुद बारात में रहे।‘’ गुरु ने डपटा, ‘’तुम लोग फर्जी बनारसी हो। न परंपरा का ज्ञान, न भाषा का सहुर, न धर्म की जानकारी।‘’ इसके बाद पांड़े गुरु ने विष्णु पुराण का काशी खण्ड निकालकर कुछ पन्ने बांचे जिनका सार कुल मिलाकर यह था कि मोदीजी को भाजपाइयों ने गलत मंदिर का दर्शन करवाने के बाद नामांकन भरवाया है, इसलिए वे यहां से इस बार हार रहे हैं।
शास्त्रों के मुताबिक पांड़े बिलकुल ठीक कह रहे थे। दरअसल, हरकेश नाम का राक्षस, जिसे शिव ने यक्षराज दंडपाणि की संज्ञा दी, काशी का दंडराजा बनाया और ‘सम्भ्रम’ व ‘उद्भ्रम’ नाम के दो चेले सहयोग के लिए पकड़ाए, उनकी अनुमति के बगैर कोई इस शहर का अंग नहीं बन सकता, यहां निवास नहीं कर सकता। इसके उलट कालभैरव काशी के सिर्फ कोतवाल हैं। उनका काम है काशी में प्रवेश की अनुमति देना। पहली बार कालभैरव से अनुमति लेनी पड़ती है लेकिन आगे की अनुमति उनके न्यायाधिकार में नहीं है।
परमानेंट रेजिडेंट का सर्टिफिकेट दंडपाणि देते हैं। कालभैरव केवल वीज़ा देते हैं। यक्षराज दंडपाणि का मंदिर ज्ञानवापी के पीछे दाहिनी ओर मार्कण्डेश्वर के बगल में है जबकि कालभैरव या दंडपाणि भैरव मैदागिन से आगे मच्छोदरी में पड़ते हैं। शास्त्र के मुताबिक इस बार मोदीजी को दंडपाणि के यहां जाना था लेकिन उन्हें कालभैरव से ही निपटा दिया गया जबकि कालभैरव का सर्टिफिकेट तो उन्हें ऑलरेडी प्राप्त था।
‘’अब खेल ये है कि दंडपाणि के हाथ में एक दंड होता है। अगल-बगल सम्भ्रम व दिग्भ्रम तैनात हैं। वे नाराज हो गए तो समझो मामला निपट गया। वे ऐसा भ्रम में डालेंगे तो मति फिर जाएगी। यह दंड केवल दूल्हे को ही नहीं, पूरी बारात को मिलेगा जिसने उसे भ्रमित किया‘’- ऐसा कहने के बाद पांड़े गुरु आकाश में ताकने लगे।
चेलवा का तो दिल जैसे बैठ ही गया। वह भागे-भागे डोमराजा के पास गया और बोला, ‘’गुरु, अनर्थ हो गयल… प्रस्तावक बने के पहिले तोहके बतावे के ना चाहत रहल कि मोदीजी, आपके साथ धोखा हुआ है। अब आपका जीतना असंभव है। तोहके त सब जानकारी हउवे न?”
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डोमराजा ने पेट पर हाथ फेरा और रामचरितमानस से ब्रह्मज्ञान पेला, ‘’अबे, केवट के स्वर्ग कइसे मिलल रहे? रामजी के पार लगवले से। हम्मै कइसे मिली? ओकरे बदे उन्हें मुक्त करे के पड़ी। एतना पाप कइले हउवन जीवन में कि बनारस के अलावा कहीं अउर मुक्ति मिली नाही। बनारस अइहें त के फूंकी? जेकरे लग्गे सर्टिफिकेट होई? का समझले?’’
भभुआ में पैदा हुए पांड़े के चेले ने कल रात ही टीवी पर सुना था कि बनारस रांड, सांड़, सीढ़ी और संन्यासी के अलावा ठगों के लिए भी मशहूर है। उसे अब जाकर बात का मर्म समझ आया। बेचैनी और निरुपायता की हालत में उसने एक की जगह तीन गोला दबाया और 23 मई तक के लिए मर गया।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, इस लेख में बनारस की स्थनीय बोली का प्रयोग किया गया है)