डॉ. मनीष पाण्डेय
……चाय के साथ पारले बिस्किट (गोल्ड वाला क्योंकि नॉर्मल का स्वाद अब चावल की भूंसी जैसा हो गया है) भिगाकर खाते हुए आशीष के मोबाइल पर रिंग आती है, जिसे वह सेकंड के दसवें भाग में ही रिसीव कर लेते हैं, क्योंकि उंगलियां तो हमेशा स्क्रीन पर ही फिरती रहती हैं। कल डॉक्टर यहाँ नंबर लग गया, चलना है का फ़रमान जारी होते ही “देखते हैं, सुबह एडीएम ऑफिस जाकर पास बनवाना पड़ेगा” के साथ बात समाप्त होती है।
सड़कें वीरान और गलियाँ सुनसान हैं। इन्ही के बीच जिलाधिकारी कार्यालय में कुछएक लोग तितर-बितर टहलते दिखाई देते हैं, जिसके एक ऑफिसनुमा कमरे में “कल जाइएगा, शाम तक पास बन जायेगा” सुनते ही आशीष ने अपना परिचय देते हुए तर्क रखा “आज डॉक्टर से बात कर चुके हैं, जाने कल बैठें कि नहीं” जिस पर कुछ सहमत होते हुए एसडीएम मातहद को एप्लीकेशन पकड़ा जल्दी बनाने का आदेश देते हुए बोले “ठीक है सर 10 मिनट थोड़ा बाहर टहल कर आइये, पास बनवाने वालों की भीड़ बहुत है न”।
ओके, थैंक्यू! कह आशीष ऑफिस के कमरे से बाहर निकलते हैं। 11 बज चुका है और एक आदमी जल्दी-जल्दी ज़मीन पर चाक से गोला का निशान बना रहा, ताकि सोशल डिस्टेंसिंग बनी रहे।
वहीं गाँधी टोपी लगाए एक बुज़ुर्ग, बाबू के कार्यालय में खड़े फ़ोन पर बोलते हैं, “मैं रामखेलावन पाण्डेय बरिष्ठ कांग्रेसी नेता बोल रहा हूँ, ……जिले के आपिस में हूँ….पास बनवाने में भी दुनियाभर का तमाशा बनाए हुए हैं………..” और फ़ोन ऑफिस बाबू को पकड़ाते हुए,” लीजिये बात करिये प्रदेश अध्यक्ष जी हैं”….कुछ बातें होती हैं, फिर फोन वापस करते हुए, “शमवा को आ जाइये आपका पसवा बन जायेगा” बाबू लगभग टरका देते हुए बोला। तबतक सामने से कमरे में प्रवेश कर रहे एक व्यक्ति हाहाकारी भाषा में बुढऊ नेता को संबोधित कर झाड़ पर चढ़ाता है, “आपके के नाई जानत, हम नाही जनती, कि डीएम साहब नाई जनतं, कि हेन (ऑफिस स्टाफ़ को उँगली दिखाते हुए) नाई जानत बाटें” “अरे उ तो ठीक है….के जानत नाई बाय बहरहाल….काम होने से मतलब है” गर्वानुभूति के साथ नेताजी मधुर भाषा में टिप्पणी करते हैं।
हालाँकि अब इस हक़ीक़त को सब जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में बचे-खुचे छोटे कार्यकर्ता टाइप कांग्रेसी नेताओं को कौन पूछता है? कोटे वाला जमाना क्या बीता सबकी राजनीति ही ख़त्म हो गई। वो भी क्या दिन थे जब चीनी,तेल, सीमेंट से लेकर गाड़ी, घोड़ा, नौकरी और पुलिस से सुरक्षा तक सब कुछ स्थानीय कांग्रेसी नेता की सिफ़ारिश पर मिलता था, अब तो मंत्री, मुख्यमंत्री को भी अपने मन का करने में लोहा लेना पड़ता है। कोई भौकाल ही नही रहा नेताओं का; लेकिन कुछ पुराने उन दिनों की कहानियां याद कर उस ज़माने के नेताओं के हनक की गाथा गाते हैं। खैर, आशीष पास लेकर अपने तय लक्ष्य पर निकलते हैं।
शाम में घर वापसी होती है, गाड़ी के कई बार हॉर्न बजाने के बाद हरचरन, “ससुरारी गइल रहला का भैया” कहते हुए गेट खोलता है। “हे ए…भैया आज गोंहू काटे वाली मशीन लगल बाय खेते में” हरचरन ने बात आगे बढ़ाई।
“खेतवा में के गइल बाय” के प्रश्न पर हरचरन, ” बड़का भैया….अरे हरेरमवा सार भी बाय वहीं” कहते हुए गेंहू ट्राली से गिरवाने के लिए जमीन पर तिरपाल बिछाने चला गया।
“भैया पालागी, बाबा बाटैं का?” कोई अजनबी आदमी सामने से आते हुए बोला
“हाँ सिंपल के घरा ओरियाँ गइल बाटें शायद! गेंहू कट रहा है, उधर ही। वैसे कहाँ घर है ?” आशीष बोले।
यहीं उतरैठे…काव कहल जाय बाबू आज कल मनई से कटवाय के दँवराही करवले में अढ़ाई तीन हजार बिगहा परि जात बाय औ पैदा कुच्छ नाही! ऊपर से मनई मिलवार नाई” (गाँव में ‘एक पूछा चार बतावैं वाली’ अंगद प्रवृत्ति बड़े व्यापक रूप से पाई जाती है, उसी के आलोक में इस जवाब को भी समझा जा सकता है)
आशीष सिर सहमति में हिलाते हैं कुछ बोलने को तबतक हरचरन की आवाज आती है, “अच्छा तब कितो बैठा नाहीं त् वहीं सड़किये ओर जाय के मिलि लै…जो तो जल्दी होय”। अब अढ़ाई तीन हजार की बात तो हरचरन के सिर के ऊपर से गुज़र गई थी; भला दस, बीस, पचास और सौ तक की समझ रखने वाले से हजार के आँकड़े की बात करना उसकी क्या अपनी नजर में भी चूतियापा लगता है। मार्क ट्वेन का जगत प्रसिद्ध कथन,
‘कभी मूर्ख लोगों के साथ बहस मत कीजिये। वो पहले आपको अपने स्तर तक खींच लायेंगे और फिर आपको अपने अनुभव से मात दे देंगे’,
इसकी अंतिम लाइन आज के विशेषकर फेसबुकियों के संदर्भ में संसोधित करने की ज़रूरत है, कि वो आपको अपने स्तर तक लाएंगे और अपने चयनित समझ और थेथरई से आपको परास्त कर देने का दंभ भरेंगे। तो आदमी समझदार था, बिना बहस बढ़ाए अपने रस्ते बढ़ गया। फेसबुक पर होता तो शायद जंग में उतरता भी! सामनी-सामना तो मामले के वाचिक से कायिक प्रकार की हिंसा में बदल जाने का ख़तरा रहता है।
अगला दिन….कुछ गेंहू जमीन पर तो कुछ ट्राली में लदा पड़ा है। दुपहरी की धूप अब चुभ रही है। लोग मन में थोड़ा खुश भी हैं कि गर्मी बढ़ेगी तो कोरोना मरेगा। वहीं बाहर के धूप-धूल और ऑफिस, दुकान, अस्पताल, आदि से दूर “घर में रहे, सुरक्षित रहें” के मंत्र में मगन लोग फेसबुक पर पिले पड़े हैं।
9 साल पुरानी प्रोफाइल पिक पर अचानक से कमेंट दिखते ही आशीष चौंक कर मामला समझने की कोसिस करते हैं, तबतक देखा कि परीक्षित की भी टिप्पणी आ गई है,”भाई लॉकडाउन में कई खनन माफ़िया सक्रिय हैं”
“अरे भाई योगी जी के शासन में माफ़िया बनने का दुस्साहस!” लिखकर आशीष टिप्पणी का जवाब देते हैं,
तब तक उमेश त्रिपाठी
“अब दिल का ग़ुबार क्या जो गुज़र गया सो गुज़र गया”
कहकर माहौल में रंगीनियत भरने की कोसिस करते हैं।
ऐसे ही न जाने कितनी घटनाओं को लेकर सोशल मीडिया पर मीम् बनाए जा रहे….
पुरानी स्मृतियाँ क्या होती हैं! फेसबुक तो अक्सर मेमोरीज़ के टैगलाइन के साथ हरेक पोस्ट का वर्षगाँठ मनाता है, लेकिन कुतुहली लोग दूसरों को प्रोफाइल खंगाल प्राचीनतम फ़ोटो निकाल रहे, जिसे देखेने के बाद ख़ुद पर हँसी आती है, कि कैसे थे हम! हालाँकि माहिर लोग ऐसी फोटोज़ को ठिकाने लगा चुके होंगे, फँसते तो केवल सीधे-साधे लोग ही हैं।
वैसे गुजरा जमाना कभी न कभी सबको याद आता है। सकारात्मक स्मृतियां तो व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में सहायक होती हैं उपहार सी होती हैं, लेकिन कुछ यादें परेशान कर देती हैं। मन पीड़ा से भर जाता है। इससे निज़ात पाने की कोसिस एक सामान्य मानव प्रवृत्ति है, लेकिन मन का सोंचा कभी होता है क्या? ना ही उसपर किसी का कोई वास्तव में नियंत्रण बन पाता है। उसे बहलाने के तरीके का सामान्यीकरण शायद ही संभव है। जितने मन उतने अलग तरीके, कोई किसी को समझा बुझा सकता है, ये भी एक भ्रम है। वैसे अपने दुःख अपने ही निपटना होता है। रहीम दास ऐसे ही नहीं कह गए,
“रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय। सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥”
यादें टाइम मशीन की तरह हैं, लम्हों में ही अतीत की सैर करा देती हैं, लेकिन ये समय की ताकत है, जो सब कुछ भुला ही नहीं देती बल्कि व्यक्ति को प्रकृतिस्थ कर देती है। सारी पुरानी कड़वी यादें, दुःख और विषाद आज के समय से सामान्य लगने लगती हैं। समय में ही अलौकिक शक्ति है, जो सबकुछ सहन करा देती है।
फिर भी स्मृतियों से विरत कौन हो पाता है! वो बचपन की यादें, वो जगजीत सिंह की गज़ल की पंक्तियाँ जैसे कागज़ की किश्ती! पढ़ने से मन का ऊब जाना, ख़यालों में डूबना-उतराना, बरसात के बाद बंद पड़े बक्सों के सामानों का बाहर निकालना या ठंड शुरू होने पर कंबल,रजाई और कपड़ों को धूप दिखाना, संबोधन की जगह नाम भरने का जगह खाली रखकर औचक ज़रूरत के लिए पर्स में प्रेम पत्र रखने वाले उस दोस्त का ख़याल, कल्पित दुनियां में जीने की मूर्खता, स्कूल बंद होने की वेदना और खुलने पर होने वाली अकुलाहट, किताबों में छिपे कॉमिक्स, आम के पेड़ की डालियों पर किताबें लेकर बैठना और खुद के मन को बहला कि पढ़ना है, असीमित मौज-मस्ती, गाँव घर के झगड़ो को देखना, फिर वही साथ रहना, लूडो, शतरंज, कैरम से चित्रहार और फ़िल्मी कहानियों के चरित्र में खुद को महसूस करने तक में कभी ख़ुशी तो एकाध बार की दुःखद घटनाएं…..यादों का असीमित संसार है।
…. ‘यह समय भी गुजर जाएगा, कैसा-कैसा वक्त निकल गया…! खैर इस नॉस्टैल्जिया से भविष्य के प्रति आशा पनपती है।
उधर आशीष के घर पर लोग टी.वी. खोल शाम के रामायण प्रसारण के इंतज़ार में बैठे हैं। न्यूज़ चैनल पर सस्पेंस बनाने वाले एंकर के चीख़ते शब्द सुनाई दे रहे
“नमस्कार मैं हूँ दुर्नब शम्स…आप देख रहे हैं ‘हलचल’… चीन से लेकर ईरान रूस…. स्पेन,इटली से लेकर अमेरिका और भारत तक आधी दुनिया कोरोना के कहर से कराह रही है। शहर तो शहर…देश के देश सन्नाटे में डूबे हैं। अजीब माहौल और मंज़र है। ये अभी और खौफनाक होगा…लेकिन इसे फ़ैलाने को लेकर दुनियां के देशों में तक़रार जारी है…आख़िर किसने फ़ैलाया कोरोना….क्या है इसके पीछे की साज़िश..”
तभी इन सब पर जरा भी कान न दे रहे हरेराम “अरे बाऊ असलीयत से ज़्यादा त् अफ़वाह कुल फैलावत बाटन; गोरखपुर में एक्को मरीज़ नाही हइन! सब झुट्ठे अफ़वाह उड़ावत रहने यहीं क मनये” बोलते हुए कोरोना को अंडरमाइन करने की कोसिस करते हैं,
तो जवाब मिलता है कि, बचपने का याद आता है शायद सन 48 या 49 के आसपास जब हैजा फैला था, सब अपने लड़िकन के नाते-बाते में भेज देहले रहल, हम खुदे फुआ के यहाँ रहली! याद आवला कि उनके यहाँ खाना खाते मछरी का कांटा फंस गइल गटइया में, तब खाँचा-वांचा लेकर सुनार आइके निकलने, अब मछरी त कबो यंह खइले नाई रहली और वह के मिसिर लोगन के चौकवे में बनत् रहै”
हरेराम टोकते हुए बोल पड़े, “हां अइया हमार बतावै ई हैजवा वाली बतियाँ….हमरे बिरादरियां में खइले-रहले क भी त परेशानी रहै, बकिर जौन अनजवा खाय जाय उ मनइयन के देही लागै, अब दुनियाभर के चीज सब खात बाय लेकिन रोग वतनै बढ़त बाय”
इसी बीच आशीष फोन की रिंग बजने पर कॉल रिसीव करने बाहर निकलते हैं और वार्तालाप शुरू होता है;
“हेलो, हाँ बताइए, क्या हाल है?” के जवाब में दिग्गी तिवारी बोलते हैं, “हाँ, सब ठीक बा, लेकिन कुछ मज़ा नहीं आ रहा; इधर आयोग में भी सब काम ठप पड़ गया है”
आशीष: अब क्या करिएगा! इसका कोई विकल्प भी तो नहीं! थोड़ा वेट करिए, सब अच्छा ही होगा”
दिग्गी : हाँ वो तो है ही, इस कोरोना ने सब गड़बड़ कर दिया, अब खाली हूँ तो यूपीपीएससी की तैयारी का वीडियो लेक्चर बनाने में ही टाइम पास हो रहा।
“हां…ये भी बढ़िया आईडिया है….सीखना है मुझे भी ये सब बिना इसके चलेगा नहीं, सब जगह ऑनलाइन कंटेंट लोड करना पड़ रहा” आशीष बोलते हुए,
“बड़ी समस्या तो नेटवर्क वाली है, अब तो जिओ भी एकदम कबाड़ा हो गया है…क्या कोई ख़ाक ऑनलाइन पढ़ेगा” दिग्गी ने कहा।
आशीष उत्तर देते हुए,”दरअसल ये सब चीजें अपने इलाके में अभी हो नहीं सकती, सब चोंचलेबाजी है, लेकिन क्या करिएगा दिखावे का ही जमाना है। कुछ कह दीजिये तो व्यवस्था समर्थन का ठेकेदार बनने वाले लोगों को बड़ा बुरा लगता है….ख़ैर छोड़ा इ सब बवाल…वीडियो बनाकर डाल दिया जाए यूट्यूब पर , जिसकी जब मर्ज़ी देखे….ये जूम-फूम से क्लास भला चलि पाई..”
“हाहाहाहा….हैक अलग से हो जाई… ई स्कुलवा वाले तो फीस लेहले खरतिन परेशान बाटें कुल…वहमे इहे बहाना रही कि ऑनलाइन क्लास चला है…” दिग्गी बोले।
फ़िर आशीष बात खत्म करते हुए,”अच्छा और सब ठीक है न….तो…आज आवा बजारे ओर …मुलाकात होय, शाम में।
‘ठीक है, मिलते हैं’.. दिग्गी तिवारी ने हामी भरते हुए कहा।
उसी शाम फोरलेन सड़क पर सन्नाटे के सिवा कुछ महसूस नहीं हो रहा! एक्का दुक्का सरकारी गाड़ी नजर आती है, तो तीन चार आदमी पैदल छोटा बैग लिए चले जा रहे। फिर मुड़कर कातर निगाहों से किसी साधन को ताकते हैं, शायद कोइ मंजिल तक पहुंचा दें।
उसी हाइवे के बगल बंद पड़े पशु बाजार के बैठके में रंदीप हैं,’ अरे यार अभी तक नीरज पाड़े जुर्राट (जुर्राट व्यंग्यात्मक उपनाम है) नहीं आया, फोन करा’ बात काटते हुए मिराज बोले , ‘अबे उ बिना मतलब बहस करी इहाँ आके….जाए द”
“हाँ आज कल त जबर कट्टरपंथी भइल बाय” रंदीप बोले …..तब तक “अरे सारे तोहने हमरै बुराई करत रहाला हरदम” बोलते हुए नीरज जुर्राट का प्रवेश होता है।
“सुनो आशीष तुम्हारे जैसे सेकुलरों के कारण ही हिन्दू मात खाते हैं, कभी इनके खिलाफ भी बोलो, कहाँ गए अबीश रविश कुमार, राहुल, ममता और कमनिस्ट लोग!” लगभग आक्रामक होते हुए जुर्राट बोले।
“अरे यार यहां तुम्ही तो हो जो बकवास बात कर रहे हो, तो तुम्हे ही तो टोकूँगा बाकी उन छद्म सेकुलरों खिलाफ भी तो लिखता हूँ, जो भी गलत रहेगा उसको रोकना ही तो लोकतंत्र है। हाँ एक बात और कि अपनी कलम अपनी आवाज मजबूत रखो दूसरे से बोलने की अपेक्षा बताती है, कि तुम ख़ुद को कमजोर मानते हो” आशीष जवाब आता है।
“अच्छा! बाकी कहीं लिंचिंग हो तो एक पूरा समुदाय और राष्ट्रवादी सराकर जिम्मेदार; सेकुलरों के राज्य में साधुओं की हत्या हो तो सर्वसमाज पर चिंता; अरे वाह! ये लिब्रल्स ही देश के सबसे बड़े गद्दार हैं” नीरज जुर्राट ने व्यंग भरी टिप्पणी की।
“भाई देख़ो हो सकता है अगला आपकी तरह घड़ियाली आँसू बहाने का अभ्यस्त ना होकर वास्तव में सामाजिक विकृतियों को लेकर पीड़ा महसूस कर रहा हो! लिंचिंग कहीं भी किसी का भी हो अक्षम्य है। अरोपियो को सम्मानित नही किया जाना चाहिए! सख़्त सजा होनी चाहिए, फिर दुबारा कोई ऐसी हरकत ने करें”
इसी बीच मिराज बोल पड़े “न्यूज़ देखा रात में ये लोग कितना हिंदू-मुस्लिम खुलकर कर रहे, महाराष्ट्र में तो दो पत्रकार झूठ फैलाने में गए जेल”
बात रोकते हुए आशीष बोले, “न्यूज़ देखते ही क्यों हो भाई! ये मीडिया पर डिबेट कराने वाले तुम्हारे दिमाग को पीड़ित कर देंगे, या तो डरा देंगे या घृणा भर देंगे। ज़रूरी खबरें वेबसाइट या अखबार से पढ़ लिया करो”
तभी मोबाइल पर घंटी बजी और आशीष बोल पड़े,” हां भैया! कहिए कैसे हैं” उधर से शुकुल जी झुँझलाते हुए ,”क्या बढ़िया है, व्यवस्था तो बना रहे हैं, लेकिन बहुत से गरीबों को परेशानी हो रही। सब्जी वैगरह बेंचने वाले छोटे वेंडर्स जो एक एक कमरे लेकर किराए पर रहते थे, अब मकान मालिक कोरोना फैलने के डर से कमरा छोड़ने का दबाव बना रहे। शासन कोसिस तो पूरी कर रहा लेकिन कुछ ख़ास कर भी तो नही सकते।”
आशीष ने कहा, “क्या किया ही जा सकता है, मैंने खुद एकदिन हेल्पलाइन पर फ़ोन किया तीन बार कोई रेस्पॉन्स नहीं मिला। लेकिन कोई सरकार होती तो ऐसे ही सब मामला हैंडल करती। इससे बेहतर नही हो सकता। वैसे पैसा वैसा तो जा रहा है पर्याप्त खाते में। असल मार तो मध्य वर्ग पर पड़ने जा रही”
“अरे छोड़िए, ये बताइए आज तो मुझे लगा दुकानें खुलेंगी, कुछ मजा नही आ रहा” शुक्ल जी बोले
आशीष: अरे ठीक है, इसी बहाने सबकी आदत छूट जाएगी…(ठहाकेदार सबकी हँसी…फोन स्पीकर पर है)
रंदीप: “अरे शुक्ला जी हैं क्या? कैसे….चल रहा है ये तो विपत्ति कॉल है। इसमें खाने-पीने पर रोक तो अमानवीय है। लेकिन क्या करिएगा ये मोदी-योगी जी पान का पत्ता तक खाते नही तो का जाने हमारा दर्द!
नीरज जुर्राट : अरे यार एक महीना हो गया डर के मारे पान नही खाया। कहीं कोरोना न हो जाए…
“सुरतिया त् खात बाटा न, उ त् नाई छुटल होई” शानू सिंह बोले..
‘अरे अब उहे त् जिअवले बाय’ नीरज का हँसी के साथ जवाब।
मिराज मौका देख उलाहने देते हुए कहते हैं,” अरे ई बहुत बड़ा मलिच्छ बाय, वही जहाँ सूती, बेडा के निचवै सुर्ती थुकले रहेला…”
“हां… हाँ तू तो सहिए में केवड़ा जल से ……..धोवाला; बहुत बड़ा सफाइवार भइल बाटा….अरे साले तुम सब न, घबड़ाओ न हिन्दू राज आ गया है” नीरज मजा लेते हुए बोले।
“उखाड़ लिहो तब् तू” मिराज का उतने ही गुस्से में जवाब।
हँसी के साथ शानू मामला शांत करते हुए, ” ए भाई मिराज लावा एकाध लाख दै द सुलह करा देइ….”
(अलिखित नियम सबको पता है मित्रों में किसी बात का कोई बुरा नहीं मानता, हाँ सोशल मीडिया पर एकदूसरे की टिप्पणियों को देखने मन में सबके थोड़ी कसक जरूर बन जा रही… वैसे ज़्यादा किसी को परवाह नहीं….पूर्वांचल में ग़म को जगजीत सिंह के गज़ल की तरह मुस्करा कर नहीं….ठहाके लगाकर छिपाया जाता है।)
घंटों बकैती चलती है, राजनीति,धर्म, साम्प्रदायिकता, लॉकडाउन की समस्या, कोरोना से बचने के उपाय, चीन को गाली, अमेरिका की दादागिरी पर गर्व तो कभी अफ़सोस, देश ही नहीं व्यक्तिगत सबके हो रहे आर्थिक नुकसान, मानसिक अवसाद, खेती-किसानी, और पुलिस-प्रशासन के मूल्यांकन बीच आपस में एक दूसरे पर चरित्र दोष और धूर्तता का भयंकर आरोप और खंडन के साथ सभा भंग होती है, कि जाने कब ये सब मामला खत्म हो और पूरी गोल साथ बैठे…कुछ पार्टी शॉर्टी होय….इतने आईसोलेट होकर रहने के लोग आदी नहीं और तुलसी बाबा भले कहे गए कि
“सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥”
लेकिन यहाँ निंदा रस का पान तो होगा ही, अगला जन्म चमगादड़ का जब होगा तब देखा जाएगा!
वैसे भी अब कहीं आने-जाने का ई-पास बनने लगा है!
(लेखक समाजशास्त्र के प्रवक्ता है)