डॉ. श्रीश पाठक
पिछले कुछ दिनों से सुबह-सुबह अखबार बेहद बेचैनी से खोले गए और पढ़े गए। बीते पिछले तीन हफ्ते देश-दुनिया और मीडिया के लिए बेहद घटनापूर्ण रहे हैं। इंटरनेट, सोशल मीडिया व ग्लोबल मीडिया की बढ़ती पहुँच ने इस बीच सूचनाओं का जो अंबार लगाया, उससे कई बार बेहद ऊहापोह की स्थिति रही।
इस बीच कई परसेप्शन पनपे, गढ़े गए, बिछाये गए, फैलाये गए और ढहाए भी गए। पॉलिटिक्स देश की हो या दुनिया की, परसेप्शन बहुत ही मायने रखते हैं। परसेप्शन, जनता को गहरे छुते हैं, पॉवर की पॉलिटिक्स को ईधन मिल जाता है, दुकान कोई लगाता है, सौदा कोई कर लेता है। आइये बीते हफ़्तों में हुई परसेप्शन वार के पेंचोखम को समझें।
पुलवामा त्रासदी
उस आतंकी स्कोर्पियो ने सीआरपीएफ जवानों की बस को नहीं टक्कर मारा था सिर्फ बल्कि राष्ट्र भारत को भी एक कायराना झटका दिया था। मीडिया के सभी माध्यमों पर संपूर्ण राष्ट्र की समवेत व्यथा व आक्रोश को देखा जा सकता था।
इस राष्ट्रीय संकट के समक्ष सभी समानांतर विमर्श स्थगित थे। दुःख और गुस्सा के भाव ही सभी राष्ट्रवासियों के मनोभाव थे। फिदायीन आतंकी आदिल अहमद डार के वीडियो के रिलीज होते ही यह स्पष्ट था कि यह हमला पाकिस्तान स्थित संगठन जैश की कारस्तानी थी और कहीं न कहीं इस घटना के बेहद मजबूत तार पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं।
आदिल अहमद डार के भारत प्रशासित कश्मीर के होने से और जैश के पाकिस्तानी कनेक्शन ने जनमानस के परसेप्शन में हिलोर पैदा कर दिया। जहाँ एक तरफ एक बड़ी संख्या में लोगों ने हमले में शहीद हुए परिवारों के लिए सहायता राशि इकट्ठी की वहीं जनता में पाकिस्तान के प्रति एक तीखा स्वाभाविक आक्रोश पैदा हुआ।
निश्चित तौर पर पाकिस्तान अपनी जमीन पर पलने वाले आतंकी संगठनों को न तबाह कर पाया है और न ही उसकी मंशा ही ऐसी कभी दिखती है। अपितु वह तो भारत के विरुद्ध इन गैर-राज्य इकाईयों के माध्यम से एक गैर-पारम्परिक युद्ध हमेशा ही छेड़े रहता है।
एक सरलीकृत स्वतःस्फूर्त परसेप्शन इस बिंदु पर जो बना वह पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान व आम पाकिस्तानी अवाम में अंतर कर पाने में नाकाम रहा और पाकिस्तान राष्ट्र के खिलाफ ही मीडिया के सभी आयामों पर गुस्सा फूटता रहा।
इस सरलीकृत परसेप्शन से निसृत अनियंत्रित गुस्से ने अंततः पाकिस्तान, कश्मीर, मुसलमान, आतंकवादी के अंतर को जहाँ-तहां भुला दिया और देश के अन्य भागों में बसे कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए सरकार तक को पहल व अपील करनी पड़ी और पटना, लखनऊ सहित कुछ स्थानों पर कश्मीरी व्यापारियों पर कुछ बहके लोगों ने गालियाँ बकीं और चोट पहुँचाने की भी कोशिश की।
कश्मीरी छात्रों को भी छिटपुट ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ा। कुछ कश्मीरी छात्रों ने जब फोन कर मुझसे पूछा कि हमारी क्या गलती है तो मैंने इसी सरलीकृत परसेप्शन को दोष दिया।
इस सरलीकृत परसेप्शन को तोड़ने के लिए कुछ सुलझे लोगों ने अलग-अलग माध्यमों पर जवाब देने की भी कोशिश की। मसलन, आज के कश्मीर में जो युवा पत्थर नहीं उठा रहा, बन्दूक उठाकर आतंकी बनने को उद्यत नहीं है, जो युवा, व्यापार कर रहा, जो युवा देश के विभिन्न जगहों पर नौकरी कर रहा और अपनी पढाई कर रहा, उन पर अगर तनिक भी जनाक्रोश फूटेगा तो आतंकी हमले का मकसद पूरा हो जायेगा।
किसी देश पर आतंकी हमला, सामने से लड़ने की चेतावनी देने के लिए नहीं होती बल्कि देश तोड़ने की मंशा से किया जाता है। देश तब नहीं टूटता जब हमारे बहादुर जवान वीरगति को प्राप्त होते हैं, या देश का कोई बड़ा पदार्थिक नुकसान होता है, पर हाँ देश में दरारें तब जरुर पड़ जाती हैं जब देशवासियों के मध्य अविश्वास हो जाता है, लोग आपस में लड़ने लग जाते हैं।
पुलवामा त्रासदी के बाद जब यह खबर आयी कि कुछ ऐसी घटना होने की इंटेलिजेंस थी अपने पास और यह भी कि जवानों को हवाई मार्ग से ले जाने का आग्रह पहले ही किया गया था तो सरकार पर सवाल उठने शुरू हुए। एक वर्ग ने सवाल करना शुरू किया और दूसरे वर्ग ने सवाल उठाने वालों पर सवाल उठाना शुरू किया।
ज़ाहिर है, परसेप्शन का अंतर सतह पर आ गया था। कुछ को पाकिस्तान पर चढ़ाई करने की बेताबी थी और यह भी कि सरकार से सवाल-जवाब तो होता रहेगा, कुछ वहीं इस बात पर जोर दे रहे थे कि आखिर यह घटना हुई ही क्यों ?
जब भारत सरकार, पाकिस्तान से पठानकोट हमले और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद बातचीत नहीं कर रही थी तो फिर सुरक्षा में कोई चूक की सम्भावना छोडी ही क्यों गयी थी, खासकर ऐसे सड़क पर जो काफी सुरक्षित मानी जाती है। पाकिस्तान की तरफ से बेखबर या लापरवाह होना तो हम यकीनन अफोर्ड नहीं कर सकते। सवाल, गलत तो नहीं हैं पर सवाल करने वालों को देशद्रोही करार देने का परसेप्शन परवान चढ़ा।
परसेप्शन ही है कि कुछ को तुरंत युद्ध चाहिये था, मानो विश्व मानचित्र से ही पाकिस्तान हटाना संभव है, या फिर दुनिया के बाकी देश, दो परमाणु संपन्न राष्ट्रों का लड़ना अपनी बॉलकनी से बस निहारते रहेंगे या पाकिस्तान जहाँ सरकार के पास सेना नहीं होती बल्कि सेना के पास सरकार होती है, वह बस तुरंत ही भारत की सैन्य क्षमता आंकड़े ही को देख समर्पण कर देगा जैसे सिकंदर ने मगध के हाथियों के बारे में सुनकर अपना रास्ता बदल लिया था।
फिर ये भी कि परमाणु दोनों के पास हैं तो परमाणु युद्ध का तो खतरा तो है नहीं और जल, थल, नभ में भारत ही भारी पड़ेगा। यह भी कि पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था युद्ध झेल नहीं पायेगी और अंततः समर्पण कर देगी। इसी बीच फ़्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया, इजरायल सहित कई देशों ने भारत के पक्ष में बयानबाजी कर दी, फिर तो अब पाकिस्तान को जवाब देने का मुफीद समय दिखने ही लगा।
भूराजनीतिक महत्त्व के दो देशों चीन और रूस की प्रतिक्रिया को वह महत्त्व नहीं दिया गया, जो कि उन्हें मिलनी चाहिए थी क्योंकि इन दो देशों ने भारत और पाकिस्तान को संयत रहने की सलाह दी थी। विश्व की हथियार लॉबी जो कि विभिन्न सरकारों पर निर्णायक असर रखती है, किसी भी सीमित-सतत युद्ध के पक्ष में होती है, भारत-पाकिस्तान युद्ध करें तो दोनों सेनाएं अमेरिका, इजरायल, रूस आदि के ही हथियार प्रमुखतया इस्तेमाल करेंगी।
इसमें मानवमूल्य की सर्वथा अवहेलना होती है। युद्ध, निश्चित तौर पर कूटनीति की हार होती है। फिर युद्ध होना है या नहीं होना है यह सरकार तय करेगी या कोई अनियंत्रित युद्धोन्माद ? किसी सरकार को अपने पाँचवें साल में पारम्परिक प्रतिद्वंदी के विरुद्ध युद्ध ही करना पड़े तो उस सरकार को सफल कैसे कहेंगे ?
इसके विपरीत परसेप्शन यह भी सटीक है कि सरकार ने लगातार दृढ़ता दिखाई। बातचीत और आतंकवाद साथ-साथ नहीं हो सकते। सरकार पत्थर का जवाब पैलेट गन से देगी और पठानकोट का जवाब सर्जिकल स्ट्राइक से देगी, फिर जो पुलवामा का जवाब युद्ध से देना पड़ा तो सरकार इसमें भी पीछे नहीं हटेगी। यहाँ बस एक मौजू सवाल अटका रह जाता है कि दृढ सरकार, इंटेलिजेंस को दरकिनार कैसे कर सकती है ?
इस बीच बात उठी सटीक कि इन जवानों को मृत्यु के बाद शहीद का दर्जा भी नहीं दिया जाता। पैरामिलिटरी बलों को सेना के मुकाबले कई स्तरों पर विभेद का व्यवहार सहना होता है। मौका देखकर राहुल गाँधी का इस बीच बयान आया कि उनकी सरकार इन पैरामिलिटरी बलों के जवानों को भी शहीद का दर्जा देगी।
इनसे भी सवाल किये गए कि क्या कांग्रेस सरकारों के समय इन बलों के जवानों की मृत्यु नहीं हुई थी, तबसे ही दे देना था शहीद का दर्जा। इस समय कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल जहाँ चुनाव संबंधी अपने सभी तयशुदा कार्यक्रम रद्द कर रहे थे और आल पार्टी मीटिंग में शिरकत कर रहे थे वहीं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के दैनिक कार्यक्रमों में छिटपुट बदलाव हुए।
बाद में एक परसेप्शन गढ़ा गया कि मोदी जी घटना के बाद से ठीक से खाना नहीं खा पाए हैं। परसेप्शन हवा में तैर रहे थे और हम जनता कभी इस तो कभी उस हवा के झोंकों के हिचकोले खाए जा रहे थे। अभी तो कुछ सरकार की तरफ से जरुर किया जाना था, कब किया जायेया, कैसे किया जायेगा, क्या-क्या किया जायेगा, यही कयासबाजी समाचार चैनलों के प्राइम टाइम के बहस में था, जिनसे कई और परसेप्शन बनने थे, बिगड़ने थे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेखक, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार व संप्रति गलगोटियाज यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।)