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लोकसभा चुनाव 2019 : दुनिया का सबसे महँगा लोकतांत्रिक उत्‍सव

योगेश बंधु

भारत सिर्फ़ विविधताओं का ही नही बल्कि विशलताओ का भी देश है। हाल ही में सम्पन्न हुआ कुंभ-महोत्सव इसका उदाहरण है। ऐसा  ही विशालता का दूसरा उदाहरण है आगामी लोकसभा चुनाव।

दुनिया के दो सबसे सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका और में चुनावों की चमक-धमक कुछ अलग ही होती है। अमेरिका में जहाँ एक ओर चुनाव प्रक्रिया सालों लम्बी चलती है, तो वही दूसरी ओर भारत में आम चुनाव किसी उत्सव से कम नही होता।

दुनिया के इतिहास में सबसे महंगा चुनाव

इसी कारण इन दोनो देशों में होने वाले चुनावों की प्रक्रिया और ख़र्चो पर नज़र रखने वाली राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओ और विश्लेशको के अनुसार, आगामी लोकसभा चुनाव भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के इतिहास में सबसे महंगा चुनाव होगा और देश में लोकतंत्र को बनाए रखने की कीमत भी काफ़ी ज़्यादा है।

प्रति वोटर महज 60 पैसे खर्च हुए

सरकारी आकड़े बताते हैं कि 1952 के पहले लोकसभा चुनाव संपन्न कराने पर प्रति वोटर महज 60 पैसे खर्च हुए थे! 1977 के लोकसभा के चुनाव में प्रति मतदाता पर होने वाला खर्च बढ़कर डेढ़ रुपया हो गया और इसके बाद से चुनावी खर्च में लगातार वृद्धि दर्ज होती रही।

चुनाव आयोग के अनुसार, 2009 में प्रति वोटर 12 रुपये खर्च हुए, जो खर्च 2014 के लोकसभा चुनाव तक आते-आते 20-22 रुपये प्रति मतदाता हो गये।  जहाँ 1952 में हुए पहले आम चुनाव में तक़रीबन 350-400 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे।

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2014 में खर्च हुए 35,547 करोड़ रुपये  

वहीं ‘कारनीज एंडोमेंट फोर इंटरनेशनल पीस थिंकटैंक’ के अनुसार जहां भारत में 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में 35,547 करोड़ रुपये  (पांच अरब अमेरिकी डॉलर) खर्च हुए थे, वहीं 2016 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और कांग्रेस चुनावों में 46,211 करोड़ रुपये (6.5 अरब अमेरिकी डॉलर) का खर्च आया था।

जबकि इस बार के लोकसभा चुनावों में यह खर्च 55000 करोड़ रुपये (7.5 अरब अमेरिकी डॉलर) से भी ज़्यादा रहने का अनुमान है। जहाँ अमेरिकी चुनाव में यह राशि एक साल से भी अधिक समय तक चुनावी प्रक्रिया में खर्च की गई, वहीं भारत में अनुमानित यह धनराशि आगामी लगभग तीन महीनों में ही खर्च की जाएगी।

सरकारी खर्च केवल 20 फीसदी

दिलचस्प बात यह है कि एक सर्वे के मुताबिक उक्त राशि में से सरकारी खर्च केवल 20 फीसदी होगा, जो राशि फोटो पहचान-पत्र ईवीएम और मतदान केंद्रों आदि पर खर्च की जाती है। जबकि बाक़ी धनराशि राजनीतिक पार्टियों और उनके प्रत्याशियों द्वारा ख़र्च की जाएगी, जिसमें वोटरों को गैर कानूनी तरीके से दिया गया प्रलोभनों पर किए जाने वाले सम्भावित ख़र्चो के अनुमान भी शामिल है।

बीजेपी ने 712 करोड़ रुपए ख़र्च किए

ज़ाहिर तौर पर इन ख़र्चो में सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी देश के दो सबसे बड़े राष्ट्रीय दलो – भाजपा और कांग्रेस की होगी। 2014 के आम चुनाव में 283 सीटे पाने वाली भाजपा ने अकेले ढाई महीनों के अभियान के दौरान 712 करोड़ रु ख़र्च किए थे। वहीं, मात्र 44 सीट पाने वाली कांग्रेस ने इसके लिए 486 करोड़ रुपये ख़र्च किया था।

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ के चेयरमैन एन भास्कर राव के अनुसार, चुनाव आयोग द्वारा चुनाव प्रक्रिया पर किए जाने वाले आधिकारिक ख़र्चो के बाद दूसरा सबसे बड़ा ख़र्च होता है विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापन, प्रचार और उम्मीदवारों पर किया जाने वाला ख़र्च। उसके बाद उम्मीदवारों द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में किया जाने वाला ख़र्च होता है। चौथा बड़ा ख़र्च मीडिया के हिस्से का है।

चुनावी ख़र्चों पर नज़र रखने और उनका हिसाब किताब रखने वाले निर्वाचन आयोग के पूर्व महानिदेशक पीके दास के अनुसार चुनाव आयोग ने जहाँ प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले ख़र्चो पर तो प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन अभी भी राजनीतिक दलों पर ख़र्चे की कोई पाबंदी नहीं है, जिसकी वजह से चुनावों में ख़र्चो में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

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हालाँकि, इसके लिए कुछ प्रयास किए गए है, जैसे कि, चुनाव आयोग ने विधि आयोग से इसके लिए जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 और चुनावी नियमों से संबंधित संहिता में संशोधन संबंधी सिफारिश की मांग की थी और इसके लिए एक फॉर्मूला भी सुझाया था कि एक राजनीतिक पार्टी जितने उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारती है, उनके लिए तय अधिकतम कुल रकम से पार्टी का खर्च अधिक नहीं होना चाहिए।

2019 में 280 करोड़ रुपये हो सकते हैं खर्च

उदाहरण के लिए यदि भाजपा 2019 के चुनाव में अपने 400 उम्मीदवारों को उतारती है तो 70 लाख रुपये प्रति सीट के हिसाब से उसके लिए तय अधिकतम चुनावी खर्च 280 करोड़ रुपये बनता है। 2014 में भाजपा ने कुल 428 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस लिहाज से उसने औसतन प्रति सीट 1.67 करोड़ रुपये खर्च किया था।

दूसरी ओर कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 1.05 करोड़ रुपये था। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल की रुचि नही होने के कारण ये प्रस्ताव मूर्तरूप नही ले पाए। ये बात सही है की जब तक चुनाव ख़र्चो को लेकर राजनीतिक दल गम्भीर नहीं होते हैं तब तक इस पर लगाम लगाना सम्भव नही है और चुनावी ख़र्च लगातार बढ़ते रहेंगे, जिसकी क़ीमत चुनावो के बाद आम मतदाताओं को ही चुकानी पड़ेगी।

(लेखक के निजी विचार हैं)

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